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________________ जैन साहित्य संशोधक [भाग, अमोघ वर्षके समयमें उसीके नामसे बनाई गई लिड्गस्य लक्ष्म ही समस्य विशेषयुक्तहै। इससे यह सिद्ध होता है कि शाकटायन व्या- मुक्तं मया परिमितं त्रिदशा इहार्याः ॥ ३१ ॥ करण ( सूत्र ) अमोघवर्षके समयमें अथवा उससे इससे भी सिद्ध होता है कि वि० सं० ८५० के कुछ पहले बनाया गया होगा। अमोघवर्षने शक लगभग जैनेन्द्र प्रख्यात व्याकरणों में गिना जाता संवत् ७३७ से ८०० तक (वि० सं०८७२ से १३५ था। अतएव यह इस समयसे भी पहलेका बना तक) राज्य किया है । अतः यदि हम शाकटायन हुआ होना चाहिए। सूत्रोंके बननेका समय वि० सं० ८५० के लगभग ३) हरिवंशपुराण शक संवत् ७०५ (वि० सं० मान लें, तो वह वास्तविकता के निकट ही रहेगा। ८४.)-का बना हुआ है। इस समय यह समाप्त ___ शाकटायन व्याकरणको बारीकीके साथ देखने हुआ है । उस समय दक्षिणमें राष्ट्रकूट राजा कृष्ण से मालूम होता है कि वह जैनेन्द्रसे पीछे बना (शुभतुंग या साहसतुंग) का पुत्र श्रीवल्लम (गोवि. हुआ है । क्यों कि उसके अनेक सूत्र जैनेन्द्रका म्दराज द्वितीय ) राज्य करता था। इस राजाने शक अनुकरण करके रचे गये हैं । उदाहरणके लिए ६९७ ते ७०५ तक [वि० ८३२ से ८४० ] तक राज्य जैनेन्द्र के “ वस्तेढ " (४-१-१५४ ), “ शिलाया- किया है । इस हरिवंशपुराणमें पूज्यपाद या देवन. ढः, (४-१-१५५) “ढच" (४१-२०९) आदि विकी प्रशंसा इस प्रकार की गई हैः .. सत्रोंको शाकटायनने थोडा बहुत फेरफार करके हइंद्रचन्द्रार्कजैनेन्द्रव्यापि (डि व्याकरणक्षिणः। अधषा ज्यों का त्यों ले लिया है। जैनेन्द्रका एक सूत्र देवस्य देववन्यस्य न वदते गिरः कथम् ॥ ३१॥ है.." टिदादिः " (१-१.५१) शाकटायमने इसे यह बात निस्सन्देह होकर कही जा सकती है कि ज्यों का त्यों रख कर अपना पहले अध्याय, पहले जैनेन्द्रव्याकरणके कर्ता देवमन्दि वि. सं ८०० से पादका ५२ वां सूत्र बना लिया है । इस सूत्रको भी पहलेके हैं। लक्ष्य करके भट्टाकलंकदेव अपने राजवार्तिक (१- ४) उपर बतलाया चुका है कि तत्वार्थराज५.१, पृष्ठ ३७ ) में लिखते हैं- “कचिदवयवे टि- वार्तिकमें जैनेन्द्र व्याकरणके एक सूत्रका हमाला दादिरिति ।" और भट्टाकलंकदेव शाकटायन तथा दिया गया है । इसी तरह “सर्वादिः सर्वनाम" अमोघवर्षसे पहले राष्ट्रकूट राजा साहसतुंगके [१.१.३५ ] सत्र भी जैनेन्द्रका है, और उसका समयमें हुए हैं, अत एव यह निश्चय है कि अक- उल्लेख राजवार्तिक अध्याय १ सूत्र ११ की व्याख्याने लंकदेवने जो 'टिदादि ' सूत्रका प्रमाण दिया है, फिया गया है। इससे सिद्ध है कि जैनेन्द्र व्याकरण बह जैनेन्द्र के सूत्रको ही लक्ष्य करके दिया है, शाक. राजवार्तिकसे पहलेका बना हुआ है। राजवार्तिकटायनके सूत्रको लक्ष्य करके नहीं । इससे यह के कर्ता अकलंकदेव राष्टकट राजा साहसतुंगसिद्ध हुआ कि शाकटायन जैनेन्द्रसे पीछेका बना जिसका दूसरा नाम शुभतुंग और कृष्ण भी हैहुआ है। अर्थात् जैनेन्द्र वि० सं०८५० से भी पहले की सभाम गये थे, इसका उल्लेख श्रवणबेलगोलकी बन चुका था। मल्लिषणप्रशस्तिमें किया गया है: और साहसतुंग२) वामनप्रणीत लिङ्गानुशासन नामका एक ने शक संवत् ६७५ से ६९७ [वि. सं. ८२० से प्रस्थ अभी हाल ही गायकवाड ओरियंटल सारी ८३२] तक राज्य किया है। यदि राजवार्तिकको जमे प्रकाशित हुआ है। इसका कर्ता पं० वामन हम इस राजाके ही समयका बना हुआ माने, राएकूट राजा जगत्तुंग या गोविन्द तृतीयके समय- तो भी जैनेन्द्र वि. स. ८०. से पहलेका बना हुआ में हुआ है और इस राजाने शक ७६ ते ७३६ सिद्ध होता है। (वि०८५१-८७१) तक राज्य किया है। यह ग्रन्थ - कर्ता नीचे लिखे पद्यमें जनेन्द्रका उल्लेख करता है. १ देव देवन्दिका ही संक्षिप्त नाम है । शब्दार्णवचन्द्रित्र्याडिप्रतिमथ वाररुच सचान्द्र कामें 1-४-११४ सूत्रकी व्याख्यामें लिखा है-.-"देवोपजैलेन्द्रलक्षणगत विविधं तथान्यत् । इमलेकशेषव्याकरणम् ।" Aho ! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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