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________________ जैन साहित्य संशोधक सेय सतानमलचेतसि विस्फुरती को शब्दार्णव व्याकरणका कर्ता ही प्रकट किया वृत्तिः सदा नुतपदा परिवर्तिषीष्ट । गया है। स्वस्ति श्रीकोल्हापूरदेशांतर्वार्जुरिकामहास्थानयुधिष्ठि- अब देखना चाहिए कि ये मेघचन्द्र और मागरावतारमहामण्डलेश्वरगंडरादित्यदेवनिर्मापितत्रिभुवनतिलक-- चन्द्र आदि कौन थे और कब हुए हैं:जिनालये श्रीमत्परमपरमेछिश्रीगोमनाथश्रीपादपद्माराधनबलेन ये मेघचन्द्र आचारसारके कर्ता वीरनन्दि सि. वादीमपत्रांकु.श्रीविशालकीतिपडितदेववैयावृत्यत:श्रीमच्छि ... द्धान्त चक्रवर्तीके गुरु ही मालूम होते हैं। ये बडे लाहारकुलकमलमातडतेजःपुंजराजाधिराजपरमेश्वरपरमभटा -- भारी विद्वान् थे । इन्हें सिद्धान्ततामें जिनसेन पश्चिमचक्रवर्तिश्रीवीरभोजदेव विजयराज्ये शवकसह-. और वीरसेनके सदृश, न्यायमें अकलंकके मशतसमाविंशति ११२७ तमक्रोधन संवत्सरे स्वस्ति समान और व्याकरण में साक्षात् पूज्यपाद सदृश सनस्तान वयविद्याचक्रचक्रवर्तिश्रीपूज्यपादानुरक्तचेतसा श्री-- बतलाया है। श्रवणबेलगोलके नं०४७, ५० और मत्सोमदेवमुनीश्वरेण विरचितेयं शब्दार्णवचन्द्रिका नाम ५२ नम्बरके शिलालेखोले मालूम होता है कि इनवृत्तिरिति । इति श्रीपूज्यपादकतजैनेन्द्रमहाव्याकरण का स्वर्गवास शक संवत् १०३७ (वि० सं०१९७२) सम्पूर्णम् ।" में और उनके शुभचन्द्रदेव नामक शिष्यका स्वर्गयशस्तिलकचाएके कर्ता सप्रसिद्ध सामदेव- वास शक संवत २०६८ (वि० सं० १२.३)में हुआ सूरि इनसे पहले हुए है। क्योंकि उनका उक्त चम्पू था। तथा उनके दूसरे शिष्य प्रभाचन्द्रदेवने शक शक संवत् ८८१ [वि. १०१६] में समाप्त हुआ सं० १०४ (वि० सं० १९७६) में एक महापूजाप्रथा। अतएव उनसे और इनसे कोई सम्बन्ध नहीं तिष्ठा कराई थी । जय सोमदेवने शब्दार्णवचन्द्रिहै, यह स्पष्ट है। का मेघचन्द्रके प्रशिष्य हरिचन्द्र के लिए शक सं० इस प्रन्थके मंगलाचरणमें नीचे लिखे दो श्लोक १९२७ (वि० सं० १२६२ ) में बनाई थी, तब मेघ चन्द्रका समय वि० सं०११७२ के लगभग मामा श्रीपूज्यपादममलं गुणनन्दिदेवं जा सकता है। सोमामरप्रतिपपूजितपादयुग्मम् । नागचन्द्र नामके दो विद्वान् हो गये हैं, एक सिद्ध समुन्नतपदं वृषभं जिनेन्द्र पपरामायणके कर्ता नागचन्द्र जिनका दूसरा नाम सच्छब्दलक्षणमहं विनमामि वीरम् ॥१॥ अभिनव पंप था, और दूसरे लब्धिसारटीकाके कर्ता, श्रीमूलसंघजलजप्रतिबोधभानो नागचन्द्र । पहले गृहस्थ थे और दूसरे मुनि । मधेन्दुदीक्षितभुजंगसुधाकरस्य । अभिनव पंपके गुरुका नाम बालचन्द्र था जो मेघचराद्धान्ततोय निधिवृद्धिकरस्य वृत्ति न्द्रके सहाध्यायी थे, और दूसरे स्वयं बालचन्द्रके रंभे हरीदुयतये वरदीक्षिताय ॥ २ ॥ शिष्य थे । इन दूसरे नागचन्द्र के शिष्य हरिचन्द्रइनमें से पहले श्लोकमें पूज्यपाद, गुणनन्दि और .. के लिए यह वृत्ति बनाई गई है । इन्हें जो 'राद्धान्त सोमदेव ये विशेषण वीर भगवानको दिये हैं। म तोयानिधिवृद्धिकर 'विशेषण दिया है उससे मा. दूसरे श्लोकमें कहा है कि यह टीका मूलसंघीय : लूम होता है, कि ये सिद्धान्तचक्रवर्ती या सिद्धा-" के शिष्य नागचन्द्र (भुजंगसुधाकर और न्त शास्त्रांक शाता या टीकाकार होंगे। उनके शिष्य हरिचन्द्र यतिके लिए बनाई जाती है। २-शब्दार्णवप्रक्रिया । यह जैनेन्द्र प्रक्रियाके गुणमन्दिकी प्रशंसा पुरादि धातुपाठके अन्त में नामसे छपी है; परन्तु हमारा अनुमान है कि इस.. भी एक पद्यमें की गई है जिसका अन्तिम धरण १ मेपचन्द्र के विषय में विशेष जानने के लिए देखो माणि कचन्द्र ग्रन्थमालाके 'आचारसार' की भूमिका शब्दब्रह्मा स जीयाद् गुणनिधिगुणनंदिव्रतीशस्सुसौख्यः। २ देखो, 'इन्स्क्रिप्शन्स एट श्रवणबेलगोल ' का ४७ वाँ अर्थात् इसमें शब्दब्रह्मा विशेषण देकर गुणनन्दि- शिलालेख । Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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