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________________ अंक २] जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी को भगवत्प्रणात बतलानेवाले विनयविजय और हमारा अनुमान है कि डॉ० कीलहानके हायमें लक्ष्मीवल्लभ विक्रमको अठारहवीं शताब्दिमें यह 'भगवद्वाग्वादिनी' की प्रति अवश्य पड़ी होगी छुए हैं। और इसीकी कृपासे प्रेरित होकर उन्होंने अपना विनयविजयजीके इस उल्लखने बड़ा काम किया पूर्वोक्त लेख लिखा होगा। उनके लेख में जोयोकादि कि भगवत्प्रणात व्याकरणका नाम — जैनेन्द्र ' है। प्रमाणस्वरूप दिये गये हैं वे सब इसीपरसे लिये यह निश्चय है कि भगवत्प्रणीत व्याकरणको गये जान पड़ते हैं । अस्तु। 'जैनेन्द्र' लिखते समय उनका लक्ष्य इस डॉ० कीलहानके इस भ्रमको सबसे पहले प्रो. देवनन्दि या पूज्यपादकृत जैनेन्द्र ' पर ही रहा पाढकने दूर किया था और अब तो जैनेंद्र व्याकरहोगा; परन्तु जान पड़ता है कि वे इस विषयमें उक्त णकी बहुत प्रसिद्धि हो चुकी ह। उसकी या उसके उल्लखके सिवाय और कछ प्रयत्न नहीं कर सके। पारशाधित-पार परिशोधित-परिवर्तित संस्करणकी कई टीकायें भी यह काम बाकी ही पड़ा रहा कि वह जैनेन्द्र व्याक- छप चुकी है। इस लिए अब सभी विद्वान् इस विषरण लोगोंके समक्ष उपस्थित कर दिया जाय और यमे सहमत हो गये हैं कि जैनेन्द्र व्याकरण किसी भक्तजन अपने भगवानकी व्याकरणशता देखकर तीर्थकर या भगवानका नहीं किन्तु अन्य वैयाकगद्गद हो जायें। खुशीकी बात है कि उनके कुछ रणोंके समान ही एक विद्वानका बनाया हुआ है ही समय बाद वि० सं०१७९७ में एक श्वेताम्बर और उनका नाम देवनन्दि या पूज्यपाद था। विद्वान्ने इस कार्यको पूरा कर डाला-साक्षात् देवनन्दि अथवा पूज्यपाद । महावीर देव का बनाया हुआ व्याकरण तैयार कर श्रीगृद्धपिच्छ मुनिपस्य बलाकांपच्छः दिया और उसका दूसरा नाम 'भगवद्वाग्या शिष्योऽजनिष्ट भवनत्रयवर्तिकीर्तिः । दिनी' रख्खा! चारित्रचञ्चुरखिलावनिपालमौलिइस भगवद्वाग्वादिनी की सबसे पहली प्रतिके मालाशिलीमुखविराजितपादपद्मः ॥ १ ॥ दर्शन करनेका सौभाग्य हमें पूनेके भाण्डार एवं महाचार्य परम्परायां कर रिसर्च इन्स्टिट्यूट में प्राप्त हुआ । यह तक्षक स्यात्कार मुद्राटिकततत्वदीपः। नगरमें रत्नर्षि नामक लेखकद्वारा वि० सं० १७९७ भद्रः समन्ताद्गुणतो गणीशः में लिखी गई थी। इसकी पत्रसंख्या ३०, और समन्तभद्रोऽजनि वादिसिंहः ।। २॥ श्लोकसंख्या ८०० है । प्रत्येक पत्रमे ११ पंक्तियां, ततःऔर प्रत्येक पंक्तिमें ४० अक्षर हैं । प्रति बहुत शुद्ध यो देवनन्दिप्रथमाभिधानो है । जैनेन्द्रका सूत्रपाठ मात्र है-और वह सूत्र पाठ बुद्धथा महत्या स जिनेंदबुद्धिः। है जिसपर शब्दार्णवचन्द्रिका टीका लिखी गई है। श्रीपूज्यपादोऽजनि देवताभिइस वाग्वादिनीके आविष्कारक अच्छे वैय्याकरण यत्पूजितं पादयुग यदीयम् ॥३॥ दिखते हैं उन्होंने शक्तिभर इस बातको सिद्ध कर- जैनेन्द्र निजशब्दभागमतुलं सर्वार्थसिद्धिः पर। नेका प्रयत्न किया है कि इसके कर्त्ता साक्षात् महा। सिद्धान्ते निपुणत्वमद्धकविता जैनाभिषेकः स्वकः । वीर भगवान हैं। दिगम्बरी देवनन्दीका बनाया छन्दः सूक्ष्माधियं समाधिशतकं स्वास्थ्य यदीय विदाहुआ यह कभी नहीं हो सकता। उनकी सब युक्ति माख्यातीह स पूज्यपादमुनिपः पूज्यो मुनीनां गणैः।।४।।* याँ हमने इस ग्रन्थ के परिचयमें-जो परिशिष्टमे दिया इस अवतरणके तीसर श्लोकका अभिप्राय यह गया है-उद्धृत करदी हैं । उन सब पर विचार है कि उनका पहला नाम देवनन्दि था, बुद्धिकी करनेकी यहाँ आवश्यकता प्रतीत नहीं होती। इस * ये श्लोक श्रायुक्त पं० कलपा भरमापा निटवेने सर्वार्थलेखको पूरा पढलेने पर पाठकों को वे सब युक्ति- सिद्धिकी भूमिकामें उध्दृत किये हैं। पर यह नहीं सूचित याँ स्वयं ही सारहीन प्रतीत होने लगेगी। किया है कि ये कहाँके हैं। Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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