SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 149
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॥ अर्हम् ।। नमोऽस्तु श्रमणाय भगवते महावीराय । जैन सा हि त्य सं शो धक 'पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि । सञ्चस्साणाए उवहिए मेहावी मारं तरइ ।' 'जे एग जाणइ से सव्वं जाणइ; जे सव्वं जाणह से एग जाणइ ।' 'दिलं, सुयं, मयं, विण्णायं जं एत्थ परिकहिजइ ।' -निर्ग्रन्थप्रवचन-आचारांगघुत्र । भाग १] हिन्दी लेख विभाग [ अंक २ . जैनेन्द्र व्याकरण और आचार्य देवनन्दी । [ लेखक-श्रीयुत पं. नाथूरामजी प्रेमी, सम्पादक जैनहितैषी । ] जैनेन्द्र । थी और इसके सुबूतमें उन्होंने कल्पसूत्रकी समय सुन्दरकृत टीका, और लक्ष्मीवल्लभकृत उपदेशमा. इन्द्रश्चन्द्रः काशरुत्स्नापिशलीशाकटायनाः । लाकरणिकाका यह उल्लेख पेश किया था कि पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टौ च शाब्दिकाः ॥ जिनदेव महावीर जिस समय ८ वर्ष के थे उस __ -धातुपाठ । समय इन्द्रने उनसे शब्दलक्षणसंबंधी कुछ प्रश्न मुग्धबोधकर्ता पं० बोपदेवने उक्त श्लोकों , किये और उनके उत्तररूप यह व्याकरण बतलाया जिन आठ वैयाकरणों के नामोंका उल्लेख किया है. इ, गया, इसलिये इसका नाम जैनेन्द्र पड़ा।उनमें एक 'जैनेन्द्र' भी हैं । ये जैनेन्द्र अथवा जैनेंद्र यदिन्द्राय जिनेन्द्रेण कौमारोप निरूपितम् । व्याकरणके कर्त्ता कौन थे इस विषयमें इतिहासज्ञोंमें ऐन्द्र जैनेन्द्रमिति तत्पाहुः शब्दानुशासनम् ।। कुछ समय तक बड़ा विवाद चला था । डॉ० किल श्वताम्बरसम्प्रदायके और भी कई ग्रन्थों में इस हार्नने इसे जिनदेव अथवा भगवान् महावीरद्वारा इन्द्र के लिए कहा गया सिद्ध करनेका प्रयत्न किया इंडियन एण्टिक्वेरी जिल्द १०, पृ० २५। Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy