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________________ अंक) संपादकीय विचार. ... टताओ तारवी कादवानी उत्कट इच्छा राखे छे थई प्रकाशित थवं जोईए. हालमा जे. अन्थो छपाय जैन साहित्य उपर तेमतुं घणुं प्रेम छे. ज्यारे अमारा छे ते शुद्धतानी दृष्टिए बहु ज असंतोष आपे तेवा आ वैमासिकनी छपाक्वानी: शुरुआतना तेमने छे. मूळ ग्रन्थने बनती रीते शुद्ध करवा तरफ बहु समाचार मळ्या त्यारे एक पत्र द्वारा तेओ पोतानी ज ओछी काळजी रखाय छे. शोधनारा के प्रकट सहानुभूति बतावतां मने लखे छे के- करनाराओने खरी. वस्तुस्थितिनुं भान होतु नथी . I am glad your quarterly is starting अने, तेथी केटलीक वखते तो तेमना हाथे एवी its life.so early. I shall certainly do all, I can to help it by contribution for I love the Jainagama and am anxi. ous that its Knowledge should spread in our country... आजे तो एटलं ज जणावीने विरामीए छीए के __ अर्थात्-आपना त्रैमासिकने बाटलं वहेलं आपणा उत्साही पुस्तक संशोधक-प्रकाशकोए पोतार्नु जीवन प्रारंभ करतुं जाणी मने घणो आनंद हवे ए विषय जरा सारं ज्ञान मेळवी चाल पद्धश्राय छे. हुं तेने लेखो द्वारा जेटली मदत थई तिमा परिवर्तन करी समयानुसार सफळ प्रयत्न शकशे तेटली अवश्य करीश. कारण के हुँ जैन करवानी आवश्यकता छे. तेम करवाथी. ज द्रव्य भागमोने चाहुं छु, अने तेना ज्ञाननो आपणा आपनार अने परिश्रम करनार बन्नेनां प्रयत्नो देशमा प्रसार थाय तेम जोवा उत्सुक छ.' आ उप. सफळ थशे. रथी जणाशे के जैन साहित्य माटे तेमनी भावना केटली संदर छे. आवा रसिक अने जिज्ञासु विद्वानो मुंबई युनिवर्सिटीमां मागधी (माकृत) भाषा. माटे तो आपणने मान होवू जोईए अने पुस्तका- आजे केटलाए वर्षो थयां जैन कॉन्फरन्स अनें दिनी जे जे सहायताओ तेमने जोईती होय ते श्री मनसखलाल रवीभाई मेहता जेवा जैनसाहित्य उदारमने आपवी जोईए. आवी जातना योग्य रसिक गृहस्थोए मुंबई युनिवर्सिटीने, पोताना पठनविद्वानोना हाथमां जो पुस्तको जाय तो ज पुस्तक क्रममां जैन साहित्यनी मळ अने पवित्र भाषा जे प्रकाशको अने संशाधकोनो परिश्रम सफळ छ. साधारण रीते मागधी अथवा अर्धमागधी कहेवाय बाकी तो साधुओ - भले रेशमीरुमालोमा बांधी छे, तेने स्थान आपवा माटे अनेक वार विज्ञप्तिमी मुकी तेमने धूप आप्या करे.: उघेई अने कंसारीओ करी हती. परंतु, एक तो ते भाषान.साहित्य योग्य. शिवाय तेमनो रसास्वाद बीजा लई शके तेवी रीते तैयार थएलं न होवाथी, भने बीज सेना स्थिति आजे तो जणाती.नथी..... अभ्यासीओ निकळशे के नहीं तेनी खात्री न होवा _ कहेलानु तात्पर्यः एटलं जछे. के, एक तो थी, युनिवर्सिटीए ते बाबतमां कोई खास ध्यान पुस्तकप्रकाशकोए जरा पोतानी विचार संकुचित- आप्यु न हाँ. परंतु ज्यारे ६-७ वर्षे उपर बौद्ध ता दूर करी, योग्य विद्वानोना हाथमां आपणु साहित्यनी पवित्र भाषा पालीने युनिवर्सिटीए प्रोताना साहित्य जवा पामे तेवो खास प्रयत्न करवो जोईए. अभ्यासक्रममा दाखल करी.. अने- छेक हाइस्कूलो बीजु, हवे ए जुनी (निर्माल्य) पद्धतिने छोडी, सुधांमा तेनो अभ्यास चालवा मांडव्यो, त्यारे, प्राकृत नवीन पद्धतिए नवं साहित्य तैयार करावQ जोईए. भाषाना प्रेमिओए पोतानी प्रिय भाषाने: पुण-तेवी मने ए साहित्य योग्य विद्वानोना हाये संशोधित रीते अभ्यासक्रममा दाखल करवा माटे यनिवर्सिटीने Aho! Shrutgyanam
SR No.009877
Book TitleJain Sahitya Sanshodhak Khand 01 Ank 01 to 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Sahitya Sanshodhak Samaj Puna
Publication Year1922
Total Pages274
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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