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________________ ५--मूल ग्रन्थ तथा अनुवाद । "श्रीजैन सिद्धान्त भवन” के सुयोग्य मंत्री एवं साहित्यसेवी जिनवाणीभक्त स्वर्गीय घावू देवकुमार जी के आदर्श सुपुत्र श्रीमान् बाबू निर्मल कुमार जी के द्वारा अपने पूज्य पिता जो के स्मारक रूप में संचालित "श्रीदेवकुमार-ग्रन्थ-माला" में कतिपय मौलिक एवं लप्तप्राय जैन वैद्यक तथा ज्योतिष ग्रन्था का उद्धार करने को आप की उत्कट अभिलाषा चिरकाल से सञ्चित थी। किन्तु तत्सम्बन्धी कोई मौलिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होने से अपनी उस प्रबल शुभेच्छा को उन्हें कुछ समय तक दबा रखना पड़ा। विशेष अन्वेषण करने पर भी जब काई महत्त्वपूर्ण उदिष्ट ग्रन्थ प्राप्त नहीं हुआ। तब उन्होंने कहा कि इस समय भवन में रक्षित सामुद्रिक ज्ञानपदीपिका और चन्द्रोन्मोलन प्रश्न सम्मिलित इन्हीं प्रन्थों को सानुवाद समाज के सामने समुपस्थित करना श्रेयस्कर होगा । बस, इसो निर्णयानुसार इन ग्रंथों के अनुवाद तथा संपादन का भार इस विषय के विशेश एवं सुयोग्य विद्वान् ज्योतिपावार्य पंडित रामन्यास तो पाण्डेय अध्यापक हिंदू विश्वविद्यालय बनारस का सौंपा गया। अवकाशाभाव के हेतु उक्त वे ग्रंथ दोघंकाल तक उन्हों के पास पड़े रहे। अंततोगत्वा 'चन्द्रान्मोलन' का छाड़कर शेष दा ग्रंथ सानुवाद उनसे प्राप्त हा गये जा आप सबों के सम्मख उपस्थित हैं। ज्योतिषाचार्य जी के कथनानुसार उक्त ग्रंथ उनसे विशेष अशुद्ध थे.अवश्य, फिर भी मैं यही कहूँगा कि पण्डित जो इनके सम्बन्ध में कुछ अधिक छानबीन करते तो ये ग्रंथ कुछ और ही आकार में आप सबों के सामने उपस्थित किये जाते। खेद की बात है कि मूल एवम् अनुवाद में बहुत सो त्रुटियां रह गया हैं। अस्तु, जिस समय इन ग्रन्थों का प्रकाशित करने का विचार पक्का हुआ तभी से इनकी अन्यान्य प्रतियों की खोज ढूंढ़ करने का क्रम जारी रहा। परन्तु अनेक ग्रन्थ भाण्डरों की सुचियाँ टटोल ने पर भो इस सामुद्रिक शास्त्र का पता कहीं भी नहीं लगा। हाँ, सौभाग्य से कारंजा एवं मैसार राजकीय पुस्तकालय की ग्रन्थनामावली में शानप्रदीपिका का नाम दृष्टिगत हुआ। इसके बाद ही कारंजा के ग्रन्थभाण्डार के प्रबन्धक को दो पत्र दिये गये। पर खेद को बात है कि ग्रन्थ भेजना तो दूर रहा पत्रोत्तर तक नदारद। मेसोर से भी पहले कोई सन्तोषजनक पत्रोत्तर नहीं मिला। किन्तु भवनस्थित इसी अशुद्ध प्रति को ज्यों त्यों कर छप जाने के उपरान्त श्रीमान् श्रद्वय न्यायतोर्थ ए० शान्तिराज शास्त्रीजी की कृपा से केवल दो सताह के लिये मौसार की प्रति प्राप्त हो सकी। वह प्रति मुद्रित थी। इसो का मूल पाठ फिर पीछे छपाकर प्रारंभ में जोड़ दिया गया। भवन की प्रति से यह प्रति कुछ विशेष शुद्ध है। किन्तु जहाँ पर मेसार को प्रति में भी सन्देह जान पड़ा Aho! Shrutgyanam
SR No.009876
Book TitleGyan Pradipika tatha Samudrik Shastram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamvyas Pandey
PublisherJain Siddhant Bhavan Aara
Publication Year1934
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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