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________________ ॥ भीअर्जुनपताका ॥ कचितस्थानद्वैतात् क्वचिदपिच कोष्टत्रितयतः । समस्ताव्यस्ताद्वा क्वचिदधिकतो वोन करणात् ।। अभूत संख्या विंशत्यत्पनुगममयी विंशतिमिता। ततस्तस्याः पद्मोदितमपिचयंत्रं विजयतात् ॥१॥ अर्थ- प्रमाणे कोई वखत के स्थानथी (बे गृहोमां रहेला बे अंकस्थानोथी, ) कोई वखत व्रण गृहमा रहेला त्रण अंकस्थानोथी, कोई वखत संपूर्ण अंकस्थानोथी, कोई वखत व्यस्त (अपूर्ण) अकस्थानोथी कोई वखत ओ आदि अधिक करीने, अने कोई वक्त छ आदि न्यून करी पण मेळवतां विंशति यंत्रने अनुसरनारी २० नी संख्या प्राप्त थाय छे, ते कारणथी ते विंशति संख्यानो पद्मावती देवी कहेलो यंत्र पण विजयवंत वर्ते छे ॥ १ ॥ वाचकैर्मेघविजयै- विंशत्यंत्रसुसूत्रितम् ॥ श्री वीरपार्श्वयत्पद्मा-नुभावादस्त सिद्धिदम् ॥ २॥ अर्थ:- प्रमाणे श्री वीरप्रभु अने पार्श्वप्रभुना तथा पद्मावती देवीना प्रभावथी श्रीमेघविजयजी उपाध्याये जे आ विंशति यंत्रनी सूत्रणा [ रचना] रची ते विंशति यंत्र सर्व सिध्धिने आपनारो थाओ ॥२॥ इतिश्री पद्मावती स्तवन कथित विंशति यंत्र प्रतिष्ठा ॥ श्रीरस्त Aho! Shrutgyanam
SR No.009872
Book TitleAnubhutsiddh Visa Yantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghvijay
PublisherMahavir Granthmala
Publication Year1937
Total Pages150
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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