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________________ ॥ श्री अर्जुनपताका ॥ नीचे स्थापवो, अथवा छ अने पांच अबे अंकने सदृशपशुं छे, ते सविस्तर प्रथमज कवाई गयुं छे, जेमके " पांडव " अशब्द वडे पांचनो अंक प्रसिद्ध छे, अने वस्तुतः कर्णने पण पांडव पणुं होवाथी " पांडव " शब्द थी छनो अंक पण गणाय. तथा पांच वडे जे काम्यते इच्छायते पंचकामी भेटले कुंता माता तेमनी वधू [ पुत्रवधू द्रौपदी ], धर्म-वा-इन्द्र- आश्विनीकुमार थे, ओप्रमाणें पांच अने छठ्ठा पांडू प्रमाणें पांच कहेवाथी छनुं पण ग्रहण थाय छे. अरीते बाण शब्दधी पण कामदेवनां ५ बाण प्रसिद्ध छे, अने छट्ठो अकसर ( अ पण कामनुं छ बाण तुल्य छै ], कहयूं छे के रहो नास्ति = अकान्त नथी, क्षणो नास्ति = अवसर नथी. इतिवचनात् अप्रमाणें इंद्रिय अने रस पांच पांच संख्यावाळा छे तो पण ६ नी गणत्री कराय छे, ओम जाणवुं. जेथी बाण अ शब्दथी ५ अथवा ६ नो पण अंक जाणवो, ते कारणथी. ५६ प्राच्यांदृगिंदू १२ नैऋत्यां गुणेन्द्र १३ उत्तराश्रितौ ॥ कृतेंदू १४ तदधोवाणेंदू १५ कला १६ वैकवृद्धितः ॥ १० ॥ अर्थ:- पूर्वदिशमां हगिंदू = १२, नैऋत्यकोणमां गुणेन्दू - १३, उत्तरादि शामां कृतेन्दू - १४, तेनी नीचे वाणेन्दू-१५ अथवा अमां अक अधिक करवाथी चंद्रनी कळा - १६पण गणाय [ते वायव्य कोणमां स्थापाय छे ] ॥ १०॥ पंचाधिकत्वादव | स्थापनीयां नवेंदवः १९ ॥ ततो दशांतो नौरुद्रा ११ - अघः पंचाधिकानृपा १६. ॥ ११ ॥ अर्थः- अथवा उत्तरदिशिमां जे १४ स्थाप्या छे, तेमां पांच अधिक करवाथी १९ थाय ते पण त्यांज १५ ना स्थाने स्थपाय छे. त्यारबाद अंतः = मध्यमां १० अने तेनी अग्रे [ अटले अग्निकोणमां ] ११ नो अंक स्थपाय छे अने तेनी [११ नी ] नीचे पांच अधिक अटले १६ नो अंक स्थापवो ॥ ११ ॥ Aho! Shrutgyanam इ. पूर्व अ. १७ १२ ११ १४ १० १६ १५ १९ १८ १३ वा. पश्चिम दक्षिण
SR No.009872
Book TitleAnubhutsiddh Visa Yantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghvijay
PublisherMahavir Granthmala
Publication Year1937
Total Pages150
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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