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________________ ॥ श्री अर्जुनपताका || अर्थ:- उपरना श्लोकमा ( ६ ट्ठामां ) तिर्यंचना नव भेद कह्या ते जलचर स्थलचर अने खेचर से त्रणे ऋण ऋण वेदवाळा होवाथी जाणवा. अने मनुष्यना अगिआर भेद ते भरतादि ७ क्षेत्रना अने ४ अंतद्रूपना जाणवा, तथा ज्योतिषीओ चार कह्या ते नक्षत्र अने ताराना से भेदथी [ ओ बेने अंक गणीने कह्या छे. ] ॥ ८ ॥ इतिकतिपय युक्ति व्यक्तिभिः विंशयंत्रं । दृढतरमपिभावात् सूत्रितं सद्गुणौधैः ॥ हठमतिशठचित्ते नैतितत्त्वा - कथंचित् सहृदयसुहृदांतु—स्तादतः शाश्वतश्रीः ॥ ९ ॥ अर्थ :- प्रमाणे विंशति यंत्रने सद्गुणना समुहवाळी केटलीक युक्तिओवडे भावधी अतिद्रढपणे सूत्रित कर्यो [ वर्णव्यो ], हठकदाग्रहनी बुद्धिवाळा सेवा पठ पुरुषना चित्तमां तस्वथी कंईपण प्राप्त 'धतुं नथी [ अर्थात् शठना चित्तमां कई तत्त्व प्राप्त थतुं नथी ], परन्तु सहृदय = विचारशील ओवा वुद्धिमानोना हृदयमां तो तत्त्व प्राप्त थाय छे, जेथी शाश्वतलक्ष्मी सिद्धी थाय छे ॥ ९ ॥ ॥ पद्मावती स्तोत्रान्तर्गत विंशतियंत्र पद्धतिः ॥ 送 ५१ श्रीपार्श्वदेववीराद्यं । नत्वानागामरार्चितम् ॥ नव स्थान्यां विंशतेः स्यात् । यंत्रमत्र तदुच्यते ॥ १ ॥ अर्थ:-श्री पार्श्वनाथ अने श्रीवीर भगवान विगेरेने नमस्कार करीने नाग देवो वडे पण पूजित अवो नव कोठानो जे विंशति यंत्र ते अहिं कहेवाय छे ( अथवा नाग ओटले नागकुमारादि भवनपतिदेवो वडे तथा अमर अटले वैमानिक देवो वडे पूजित ओवा श्री पार्श्वनाथ तथा श्रीवीरप्रभुने नमस्कार करीने नवकोठानो विंशति यंत्र कहेवाय छे ) ॥ १ ॥ Aho! Shrutgyanam
SR No.009872
Book TitleAnubhutsiddh Visa Yantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghvijay
PublisherMahavir Granthmala
Publication Year1937
Total Pages150
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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