SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॥ श्रीअर्जुनपताका ॥ छे अम मानीनेज संतोष करवो, परंतु शास्त्र विरोधना विवादो वडे अंकोनी भावना न करवी. कारणके यंत्रोमां अंकन्यासनी बीजी कोई गतीज नथी. ____ओ प्रमाणे विंशतिनो [ २० अंकनो ] नव गृह । नव खानां] वाळो यन्त्र वर्तमानकाळमां पण जेनी सेवा अभयने आपनारी अने जयने आपनारी छे, तेनी सेवामां आसक्त रक्त थयेला अवा देव वडे अनुषक्त ( देवाधिष्टित ) छे, तथा विजय विधिनुं निधान छे, दुर्जनोने तर्जना रुप छे, ओवो आ अर्जुन पताका नामनो विंशति यंत्र वैभवनो हेतु थाओ॥१॥ प्राचीन पंडितो) आ यंत्रोमां (नव खानावाळा यंत्रोमां) बीजो भाग करवाथी शेष ओक रह्ये छते पण [कृत-४ गुण-३ अटले ] चोत्रीसनो यंत्र करेलो छे, अने बे शेष रहेतां पण (ख० बाण-५ ओटले) पचासनो यंत्र करेलो छे, माटे ते पंडितोना मार्गने अनुसरनारी बुद्धिवाळा अने उपाध्याय पद प्रतिष्ठित अवा श्री मेघ विजयजी उपाध्याये आ विहरमान जिननो विजयकारी अथवा विजय नाम नो विंशति यंत्र स्पष्ट कर्यो छे-प्रगट कर्यो छे. ॥ ॥ इति श्री विजययन्त्रे विंशति यन्त्रन्यासः ॥ | १२ ४ १० .१० १२ । १२ ५ । २१ ॥२२॥ २४ ॥२३॥ ॥२४॥ ॥२५॥ ११ १० २७ ॥२६॥ ॥२७॥ २७ ॥२८॥ ३० ॥२९॥ Ahol Shrutgyanam
SR No.009872
Book TitleAnubhutsiddh Visa Yantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghvijay
PublisherMahavir Granthmala
Publication Year1937
Total Pages150
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy