SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॥ श्रीअर्जुनपताका ॥ शब्दोमां छट्टी अने पांचमी विभक्तिनुं ओक स्वरूप छे. माटे ओ बन्ने विभक्तिओ पण अकत्व वाचक छे, [अर्थात् बे विभक्तिओ ओक स्वरूपवाळी होवाथी अक छे], ओ प्रमाणे अकमां जेम अंक पणानो व्यपदेश छे, तेम द्विकमां-बे मां पण द्वि-बे रूप अक पणानो व्यपदेश छे ( अर्थात् द्विक कहेवाथी अक जोड समजाय छे), परन्तु तेवी रीते त्रिकमां (त्रणने योगमा) तेवो अकपणानो व्पपदेश नथी. कारणके बहुपणाने त्रणनी संख्या छे, अने ते बहुपणु पर्यवसानवाळु [अन्ते रहेतु वा बोलातुं होवाथी पर्यन्तस्थानीय ] छे, वळी ओ प्रमाणे (जेम अक बेने सदृशता छ तेम) व्रण अने चारने पण सदृशता छे अने ते सदृशता स्थान विशेषमां कहेली छे [-नगर विगेरेमा मार्गने अंगे सिद्धान्तोमा कहेली छे ], जो के कोई स्थाने नगरमां बे मार्गादिक होय छे, अने तेथी द्विमार्गादिकनो पाठ कहेवो जोईये छतां पण तियचउक्कचच्चरचउम्मुंह इत्यादि सूत्रपाठमां त्रिक अने चतुष्टनुज सहचारी पणुं देखाय छे, परन्त बेनुं सहचारपिणुं देखातुं नथी. शब्दशास्त्रमा पण त्रिचतुरोः ओज सूत्र कहेलं होवाथी, तेमज ज्योतिष शास्त्रमा पण चतुर्थनी [चोथ तिथिथी] भद्रा कृष्णपक्षनी त्रीजमां अन्त पामती कही छे, वेदोमां पण व्रणपणु तथा चारपणुं (सहचारी) कां छे, त्यां 'त्रयीव नतिांग गुणेन विस्तर इति श्री हर्षः, चउण्हवेयाणं सारऐ-इतिसूत्र. तथा वर्णोमां पण त्रणपj १ विभक्ति विगेरेमा त्रण वस्तु माटे बहु वचनना प्रत्ययो लागे छे. २ त्रण मार्ग ते त्रिक, चार मार्गवालं स्थान चतुष्क, चत्वर आंगणुं विगेरे अने चतुर्मुख पण चार मार्गनुं स्थान विशेष छे. ३ अंगना गुणवडे पामेला गुणविस्तारने जाणे त्रिरुपतानेज पामी होय अवी, अर्थात् गुणत्रण छे सत्वगुण-रजोगुण-तमोगुण. जेथी शरीर पण अत्रणे गुणने पामेल छे. अवी कोई स्त्री अंगे अवाक्य संभवे छे. अथवा चालु विषयने अनुसारे " वेदत्रयीने पामेला शरीरवाळी" अ अर्थ पण संभवे. ४ चार वेदोनो स्मारक-संभारीने रक्षण करनार. ५ से प्राकृतसूत्र जैन सिध्धान्तोमा उत्तम विप्रना वर्णन प्रसंगे आवे छे. Aho! Shrutgyanam
SR No.009872
Book TitleAnubhutsiddh Visa Yantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghvijay
PublisherMahavir Granthmala
Publication Year1937
Total Pages150
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy