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________________ मोक्षमाला-शिक्षापाठ ७३. मोक्षसुख शिक्षापाठ ७३ : मोक्षसुख इस सृष्टिमंडलमें भी कितनी ही ऐसी वस्तुएँ और मनकी इच्छाएँ रही हैं कि जिन्हें कुछ अंशमें जानते हुए भी कहा नहीं जा सकता। फिर भी ये वस्तुएँ कुछ सम्पूर्ण शाश्वत या अनंत भेदवाली नहीं है। ऐसी वस्तुका जब वर्णन नहीं हो सकता तब अनन्त सुखमय मोक्षसम्बन्धी उपमा तो कहाँसे मिलेगी? गौतम स्वामीने भगवानसे मोक्षके अनन्त सुखके विषयमें प्रश्न किया तब भगवानने उत्तरमें कहा-"गौतम ! यह अनंतसुख ! मैं जानता हूँ, परन्तु उसे कहा जा सके ऐसी यहाँ पर कोई उपमा नहीं है। जगतमें इस सुखके तुल्य कोई भी वस्तु या सुख नहीं है।" ऐसा कहकर उन्होंने निम्न आशयका एक भीलका दृष्टांत दिया था। भद्रिक भीलका दृष्टांत एक जंगलमें एक भद्रिक भील अपने बालबच्चों सहित रहता था। शहर आदिकी समृद्धिकी उपाधिका उसे लेश भान भी न था। एक दिन कोई राजा अश्वक्रीडाके लिये घूमता घूमता वहाँ आ निकला। उसे बहुत प्यास लगी थी, जिससे उसने इशारेसे भीलसे पानी माँगा। भीलने पानी दिया। शीतल जलसे राजा संतुष्ट हुआ। अपनेको भीलकी तरफसे मिले हुए अमूल्य जलदानका बदला चुकानेके लिये राजाने भीलको समझा कर अपने साथ लिया। नगरमें आनेके बाद राजाने भीलको उसने जिन्दगीमें न देखी हुई वस्तुओंमें रखा । सुन्दर महल, पासमें अनेक अनुचर, मनोहर छत्रपलंग, स्वादिष्ट भोजन, मंद-मंद पवन और सुगन्धी विलेपनसे उसे आनन्दमय कर दिया। विविध प्रकारके हीरा, माणिक, मौक्तिक, मणिरत्न और रंग-बिरंगी अमूल्य वस्तुएँ निरन्तर उस भीलको देखनेके लिये भेजा करता था, और उसे बाग-बगीचोंमें घूमने-फिरनेके लिये भेजा करता था। इस प्रकार राजा उसे सुख दिया करता था। एक रात जब सब सो रहे थे तब उस भीलको बालबच्चे याद आये, इसलिये वह वहाँसे कुछ लिये किये बिना एकाएक निकल पडा। जाकर अपने कुटुम्बियोंसे मिला। उन सबने मिलकर पूछा, “तू कहाँ था ?" भीलने कहा, “बहुत सुखमें। वहाँ मैंने बहुत प्रशंसा करने योग्य वस्तुएँ देखीं।" कुटुम्बी-परंतु वे कैसी थीं? यह तो हमें बता। भील-क्या कहूँ ? यहाँ वैसी एक भी वस्तु नहीं है। कुटुम्बी-भला ऐसा हो क्या? ये शंख, सीप, कौडा कैसे मनोहर पडे हैं ! वहाँ ऐसी कोई देखने लायक वस्तु थी? भील-नहीं, नहीं भाई, ऐसी वस्तु तो यहाँ एक भी नहीं है। उनके सौवें या हजारवें भाग जितनी भी मनोहर वस्तु यहाँ नहीं है। कुटुम्बी-तब तो तू चुपचाप बैठा रह, तुझे भ्रम हुआ है, भला, इससे अच्छा और क्या होगा? हे गौतम ! जैसे यह भील राजवैभवसुख भोगकर आया थी, और जानता भी था, फिर भी उपमायोग्य वस्तु न मिलनेसे वह कुछ कह नहीं सकता था; वैसे ही अनुपमेय मोक्षको, सच्चिदानन्द स्वरूपमय निर्विकारी मोक्षके सुखके असंख्यातवें भागके भी योग्य उपमेय न मिलनेसे मैं तुझे नहीं कह सकता। ५८
SR No.009867
Book TitleDrushtant Kathao
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2011
Total Pages68
LanguageMarathi
ClassificationBook_Other & Rajchandra
File Size47 MB
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