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________________ मोक्षमाला - शिक्षापाठ २२. कामदेव श्रावक भी योग्य नहीं है।” यों कहकर उसने पंचमुष्टि केशलुंचन किया और वहाँसे मुनित्वभावसे चल निकला। उसने, भगवान आदीश्वर जहाँ अठानवें दीक्षित पुत्रों और आर्यआपके साथ विहार करते थे, वहाँ जानेकी इच्छा की; परंतु मनमें मान आया। "वहाँ मैं जाऊँगा तो अपने से छोटे अठानवें भाइयोंको वंदन करना पडेगा । इसलिए वहाँ तो जाना योग्य नहीं।" फिर वनमें वह एकाग्र ध्यानमें रहा । धीरे-धीरे बारह मास हो गये । महातपसे काया हड्डियोंका ढाँचा हो गयी । वह सूखे पेड जैसा दीखने लगा, परंतु जब तक मानका अंकुर उसके अंतःकरणसे हटा न था तब तक उसने सिद्धि नहीं पायी । ब्राह्मी और सुंदरीने आकर उसे उपदेश दिया, “आर्य वीर ! अब मदोन्मत्त हाथीसे उतरिये, इसके कारण तो बहुत सहन किया ।” उनके इन वचनोंसे बाहुबल विचारमें पड़ा विचार करते-करते उसे भान हुआ, "सत्य है। मैं मानरूपी मदोन्मत्त हाथीसे अभी कहाँ उतरा है ? अब इससे उतरना ही मंगलकारक है।" ऐसा कहकर उसने वंदन करनेके लिए कदम उठाया कि वह अनुपम दिव्य कैवल्यकमलाको प्राप्त हुआ। पाठक ! देखो, मान कैसी दुरित वस्तु है !! शिक्षापाठ २२ : कामदेव श्रावक महावीर भगवानके समयमें द्वादश व्रतको विमल भावसे धारण करनेवाला, विवेकी और निग्रंथवचनानुरक्त कामदेव नामका एक श्रावक उनका शिष्य था। एक समय इन्द्रने सुधर्मासभा में कामदेवकी धर्म-अचलताकी प्रशंसा की। उस समय वहाँ एक तुच्छ बुद्धिमान देव बैठा हुआ था । "वह बोला- "यह तो समझमें आया, जब तक नारी न मिले तब तक ब्रह्मचारी तथा जब तक परिषह न पडे हों तब तक सभी सहनशील और धर्मदृढ ।' यह मेरी बात मैं उसे चलायमान करके सत्य कर दिखाऊँ।" धर्मदृढ कामदेव उस समय कायोत्सर्गमें लीन था। देवताने विक्रियासे हाथीका रूप धारण किया और फिर कामदेवको खूब रौंदा, तो भी वह अचल रहा फिर मूसल जैसा अंग बनाकर काले वर्णका सर्प होकर भयंकर फुंकार किये, तो भी कामदेव कायोत्सर्ग लेशमात्र चलित नहीं हुआ। फिर अट्टहास्य करते हुए राक्षसकी देह धारण करके अनेक प्रकारके परिषह किये, तो भी कामदेव कायोत्सर्गसे डिगा नहीं । सिंह आदिके अनेक भयंकर रूप किये, तो भी कामदेवने कायोत्सर्गमें लेश हीनता नहीं आने दी। इस प्रकार देवता रात्रिके चारों प्रहर उपद्रव करता रहा, परंतु वह अपनी धारणामें सफल नहीं हुआ। फिर उसने उपयोगसे देखा तो कामदेवको मेरुके शिखरकी भाँति अडोल पाया। कामदेवकी अद्भुत निश्चलता जानकर उसे विनयभावसे प्रणाम करके अपने दोषोंकी क्षमा माँगकर वह देवता स्वस्थानको चला गया। 'कामदेव श्रावककी धर्मदृढता हमें क्या बोध देती है, यह बिना कहे भी समझमें आ गया होगा । इसमेंसे यह तत्त्वविचार लेना है कि निग्रंथ-प्रवचनमें प्रवेश करके दृढ रहना । कायोत्सर्ग इत्यादि जो ध्यान करना है, उसे यथासंभव एकाग्र चित्तसे और दृढतासे निर्दोष करना ।' चलविचल भावसे कायोत्सर्ग बहुत दोषयुक्त होता है। 'पाईके लिए धर्मकी सौगन्ध खानेवाले धर्ममें ३८
SR No.009867
Book TitleDrushtant Kathao
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2011
Total Pages68
LanguageMarathi
ClassificationBook_Other & Rajchandra
File Size47 MB
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