SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्षमाला - शिक्षापाठ १७. बाहुबल लोकालोक-प्रकाशक सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और निरुपम केवलज्ञानियोंने कहा है। संक्षेपमें लोकस्वरूपभावना कही गयी। पापप्रणालको रोकनेके लिए आस्रवभावना और संवर-भावना, महाफली तपके लिए निर्जराभावना और लोकस्वरूपका किंचित् तत्त्व जाननेके लिए लोकस्वरूपभावना इस दर्शनके इन चार चित्रोंमें पूर्ण हुई। दशम चित्र समाप्त। ज्ञान, ध्यान, वैराग्यमय, उत्तम जहाँ विचार । ए भावे शुभ भावना, ते ऊतरे भव पार ॥ ११. बोधिदुर्लभभावना-संसारमें भ्रमण करते हुए आत्माको सम्यग्ज्ञानकी प्रसादी प्राप्त होना दुर्लभ है; अथवा सम्यग्ज्ञान प्राप्त हुआ तो चारित्र-सर्वविरतिपरिणामरूप धर्म प्राप्त होना दुर्लभ है; इस तरह चिंतन करना, यह ग्यारहवीं बोधिदुर्लभभावना। १२. धर्मदुर्लभभावना-धर्मके उपदेशक तथा शुद्ध शास्त्रके बोधक गुरु और उनके उपदेशका श्रवण मिलना दुर्लभ है, इस तरह चिंतन करना, यह बारहवीं धर्मदुर्लभभावना। मोक्षमाला ग्रंथमेंसे दृष्टांत शिक्षापाठ १७ : बाहुबल बाहुबल अर्थात् अपनी भुजाका बल यह अर्थ यहाँ नहीं करना है; क्योंकि बाहुबल नामके महापुरुषका यह एक छोटा परंतु अद्भुत चरित्र है। ऋषभदेवजी भगवान सर्वसंगका परित्याग करके भरत और बाहुबल नामके अपने दो पुत्रोंको राज्य सौंप कर विहार करते थे। तब भरतेश्वर चक्रवर्ती हुआ। आयुधशालामें चक्रकी उत्पत्ति होनेके बाद उसने प्रत्येक राज्य पर अपना आम्नाय स्थापित किया और छः खंडकी प्रभुता प्राप्त की। मात्र बाहुबलने ही यह प्रभुता अंगीकार नहीं की। इससे परिणाममें भरतेश्वर और बाहुबलके बीच युद्ध शुरू हुआ। बहुत समय तक भरतेश्वर या बाहुबल इन दोनोंमेंसे एक भी पीछे नहीं हटा, तब क्रोधावेशमें आकर भरतेश्वरने बाहुबल पर चक्र छोडा । एक वीर्यसे उत्पन्न हुए भाई पर वह चक्र प्रभाव नहीं कर सकता, इस नियमसे वह चक्र फिरकर वापस भरतेश्वरके हाथमें आया। भरतके चक्र छोडनेसे बाहुबलको बहुत क्रोध आया। उसने महाबलवत्तर मुष्टि उठायी। तत्काल वहाँ उसकी भावनाका स्वरूप बदला। उसने विचार किया, “मैं यह बहुत निंदनीय कर्म करता हूँ। इसका परिणाम कैसा दुःखदायक है ! भले भरतेश्वर राज्य भोगे । व्यर्थ ही परस्परका नाश किसलिए करना? यह मुष्टि मारनी योग्य नहीं है; तथा उठायी है तो इसे अब पीछे हटाना ३६
SR No.009867
Book TitleDrushtant Kathao
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2011
Total Pages68
LanguageMarathi
ClassificationBook_Other & Rajchandra
File Size47 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy