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________________ निर्जराभावना दृढप्रहारी - उन्होंने तो आस्रवद्वारकी सत्य प्रतिज्ञा ग्रहण की है।" तो भी रुक्मिणीने कहना नहीं माना। निरुपाय होकर धनावा शेठने कुछ द्रव्य और सुरूपा रुक्मिणीको साथ लिया; और जहाँ वज्रस्वामी बिराजते थे वहाँ आकर कहा, "यह लक्ष्मी है, इसका आप यथारुचि उपयोग करें, और वैभवविलासमें लगायें और इस मेरी महासुकोमला रुक्मिणी नामकी पुत्रीसे पाणिग्रहण करे।" यों कहकर वह अपने घर चला आया । यौवनसागरमें तैरती हुई रूपराशि रुक्मिणीने वज्रस्वामीको अनेक प्रकारसे भोग संबंधी उपदेश दिया; भोगके सुखोंका अनेक प्रकारसे वर्णन किया; मनमोहक हावभाव तथा अनेक प्रकारके अन्य चलित करनेके उपाय किये; परंतु वे सर्वथा वृथा गये; महासुंदरी रुक्मिणी अपने मोहकटाक्षमें निष्फल हुई। उग्रचरित्र विजयमान वज्रस्वामी मेरुकी भाँति अचल और अडोल रहे। रुक्मिणीके मन, वचन और तनके सभी उपदेशों तथा हावभावोंसे वे लेशमात्र न पिघले । ऐसी महाविशाल दृढतासे रुक्मिणीने बोध प्राप्त करके निश्चय किया कि ये समर्थ जितेन्द्रिय महात्मा कभी चलित होनेवाले नहीं है। लोहे और पत्थरको पिघलाना सरल है, परंतु इन महापवित्र साधु वज्रस्वामीको पिघलानेकी आशा निरर्थक होते हुए भी अधोगतिके कारणरूप है । इस प्रकार सुविचार करके उस रुक्मिणीने पिताकी दी हुई लक्ष्मीको शुभक्षेत्रमें लगाकर चारित्र ग्रहण किया; मन, वचन और कायाका अनेक प्रकारसे दमन करके आत्मार्थ साधा। इसे तत्त्वज्ञानी संवरभावना कहते हैं । इति अष्टम चित्रमें संवर भावना समाप्त हुई । नवम चित्र निर्जरा भावना द्वादश प्रकारके तपसे कर्म- समूहको जलाकर भस्मीभूत कर डालनेका नाम निर्जराभवा है। तपके बारह प्रकारमें छ: बाह्य और छः अभ्यंतर प्रकार है । अनशन, ऊनोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रस- परित्याग, कायक्लेश और संलीनता ये छ: बाह्य तप हैं। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, शास्त्रपठन, ध्यान और कायोत्सर्ग ये छः अभ्यंतर तप है। निर्जरा दो प्रकारकी है एक अकाम निर्जरा और दूसरी सकाम निर्जरा निर्जराभावना पर एक विप्र-पुत्रका दृष्टांत कहते हैं। दृढप्रहारी दृष्टांत - किसी ब्राह्मणने अपने पुत्रको सप्तव्यसनभक्त जानकर अपने घरसे निकाल दिया । वह वहाँसे निकल पड़ा और जाकर उसने तस्करमंडलीसे स्नेहसंबंध जोडा । उस मंडलीके अग्रेसरने उसे अपने काममें पराक्रमी जानकर पुत्र बनाकर रखा। वह विप्रपुत्र दुष्टदमन करनेमें दृढप्रहारी प्रतीत हुआ। इससे उसका उपनाम दृढप्रहारी रखा गया । वह दृढप्रहारी तस्करों में अग्रेसर हुआ। नगर, ग्रामका नाश करनेमें वह प्रबल हिंमतवाला सिद्ध हुआ । उसने बहुतसे ३३
SR No.009867
Book TitleDrushtant Kathao
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2011
Total Pages68
LanguageMarathi
ClassificationBook_Other & Rajchandra
File Size47 MB
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