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________________ भावनाबोध-संवरभावना हुआ, जिससे वह चारित्रपरिणामसे भ्रष्ट हो गया। पुंडरीकिणी महानगरीकी अशोकवाटिकामें आकर उसने ओघा, मुखपटी वृक्ष पर लटका दिये। वह निरंतर यह परिचिंतन करने लगा कि पुंडरीक मुझे राज्य देगा या नहीं? वनरक्षकने कुंडरीकको पहचान लिया। उसने जाकर पुंडरीकको विदित किया कि आकुल व्याकुल होता हुआ आपका भाई अशोक बागमें ठहरा हुआ है। पुंडरीकने आकर कुंडरीकके मनोभाव देखे और उसे चारित्रसे डगमगाते हुए देखकर कुछ उपदेश देनेके बाद राज्य सौंपकर घर आया। कुंडरीककी आज्ञाको सामंत या मंत्री कोई भी नहीं मानते थे, बल्कि वह हजार वर्ष तक प्रव्रज्या पालकर पतित हुआ, इसलिए उसे धिक्कारते थे। कुंडरीकने राज्यमें आनेके बाद अति आहार किया। इस कारण वह रात्रिमें अति पीडित हुआ और वमन हुआ। अप्रीतिके कारण उसके पास कोई आया नहीं, इससे उसके मनमें प्रचण्ड क्रोध आया। उसने निश्चय किया कि इस पीडासे यदि मुझे शांति मिले तो फिर प्रभातमें इन सबको मैं देख लूँगा। ऐसे महादुर्ध्यानसे मरकर वह सातवीं नरकमें अपयठाण पाथडमें तैतीस सागरोपमकी आयुके साथ अनन्त दुःखमें जाकर उत्पन्न हुआ। कैसा विपरीत आस्रवद्वार !! इति सप्तम चित्रमें आस्रवभावना समाप्त हुई। अष्टम चित्र संवरभावना संवरभावना : उपर्युक्त आस्रवद्वार और पापप्रणालको सर्वथा रोकना (आते हुए कर्मसमूहको रोकना) यह संवरभाव है। पुंडरिक दृष्टान्त : (१) (कुंडरीकका अनुसंबंध) कुंडरीकके मुखपटी इत्यादि उपकरणोंको ग्रहण करके पुंडरीकने निश्चय किया कि मुझे पहले महर्षि गुरुके पास जाना चाहिए और उसके बाद ही अन्न जल ग्रहण करना चाहिए। नंगे पैरोंसे चलनेके कारण पैरोंमें कंकर एवं काँटे चुभनेसे लहूकी धाराएँ बह निकलीं, तो भी वह उत्तम ध्यानमें समताभावसे रहा। इस कारण यह महानुभाव पुंडरीक मृत्यु पाकर समर्थ सर्वार्थसिद्ध विमानमें तैतीस सागरोपमकी उत्कृष्ट आयुसहित देव हुआ। आस्रवसे कुंडरीककी कैसी दु:खदशा! और संवरसे पुंडरीककी कैसी सुखदशा !! वज्रस्वामी दृष्टांत : (२) श्री वज्रस्वामी कंचनकामिनीके द्रव्यभावसे सर्वथा परित्यागी थे। एक श्रीमंतकी रुक्मिणी नामकी मनोहारिणी पुत्री वज्रस्वामीके उत्तम उपदेशको सुनकर उन पर मोहित हो गयी। घर आकर उसने मातापितासे कहा, “यदि मैं इस देहसे पति करूँ, तो मात्र वज्रस्वामीको ही करूँ, अन्यके साथ संलग्न न होनेकी मेरी प्रतिज्ञा है।" रुक्मिणीको उसके मातापिताने बहुत ही कहा, "पगली ! विचार तो सही कि क्या मुनिराज भी कभी विवाह करते हैं ? ३०
SR No.009867
Book TitleDrushtant Kathao
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2011
Total Pages68
LanguageMarathi
ClassificationBook_Other & Rajchandra
File Size47 MB
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