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________________ भावनाबोध - निवृत्तिबोध क्लेशित होकर इस शरीरसे अवश्यमेव जाना है। जैसे किंपाक वृक्षके फलका परिणाम सुखदायक नहीं है वैसे भोगका परिणाम भी सुखदायक नहीं है। जैसे कोई पुरुष महा प्रवासमें अन्न-जल साथमें न ले तो क्षुधा तृषासे दुःखी होता है वैसे ही धर्म अनाचरणसे परभवमें जानेपर वह पुरुष दुःखी होता है, जन्म- जरादिकी पीडा पाता है । महाप्रवास में जाता हुआ जो पुरुष अन्न-जलादि साथमें लेता है वह पुरुष क्षुधा तृषासे रहित होकर सुख पाता है उसी प्रकार धर्मका आचरण करनेवाला पुरुष परभवमें जानेपर सुख पाता है; अल्प कर्मरहित होता है और असातावेदनीयसे रहित होता है। हे गुरुजनों! जैसे किसी गृहस्थका घर प्रज्वलित होता है तब उस घरका मालिक अमूल्य वस्त्रादिको ले जाकर जीर्ण वस्त्रादिको वहीं छोड देता है, वैसे ही लोकको जलता देखकर जीर्ण वस्त्ररूप जरा-मरणको छोडकर अमूल्य आत्माको उस दाहसे ( आप आज्ञा दें तो मैं) बचाऊँगा।" मृगापुत्रके वचन सुनकर उसके मातापिता शोकार्त होकर बोले, "हे पुत्र ! यह तू क्या कहता है ? चारित्रका पालन अति दुष्कर है। यतिको क्षमादिक गुण धारण करने पड़ते हैं, निभाने पड़ते हैं और यत्नासे सँभालने पडते हैं । संयतिको मित्र और शत्रुमें समभाव रखना पडता है, संयतिको अपने आत्मा और परात्मापर समबुद्धि रखनी पडती है; अथवा सर्व जगतपर समान भाव रखना पड़ता है। ऐसा पालनेमें दुष्कर प्राणातिपात विरति प्रथम व्रत, उसे जीवनपर्यंत पालना पड़ता है। संयतिको सदैव अप्रमत्ततासे मृषा वचनका त्याग करना और हितकारी वचन बोलना, ऐसा पालनेमें दुष्कर दूसरा व्रत धारण करना पड़ता है। संयतिको दंत शोधनके लिए एक सलाईके भी अदत्तका त्याग करना और निरवद्य एवं दोषरहित भिक्षाका ग्रहण करना, ऐसा पालनेमें दुष्कर तीसरा व्रत धारण करना पडता है । कामभोगके स्वादको जानने और अब्रह्मचर्यके धारण करनेका त्याग करके ब्रह्मचर्यरूप चौथा व्रत संयतिको धारण करना तथा उसका पालन करना बहुत दुष्कर है। धनधान्य, दास-समुदाय, परिग्रहके ममत्वका वर्जन और सभी प्रकारके आरंभका त्याग करके केवल निर्ममत्वसे यह पाँचवाँ महाव्रत संयतिको धारण करना अति विकट है। रात्रिभोजनका वर्जन तथा घृतादि पदार्थोंके वासी रखनेका त्याग करना अति दुष्कर है । हे पुत्र ! तू चारित्र चारित्र क्या करता है ? चारित्र जैसी दुःखप्रद वस्तु दूसरी कौनसी है ? क्षुधाका परिषह सहन करना; तृषाका परिषह सहन करना शीतका परिषह सहन करना; उष्ण तापका परिषह सहन करना; डाँस मच्छरका परिषह सहन करना; आक्रोशका परिषह सहन करना; उपाश्रयका परिषह सहन करना; तृणादिके स्पर्शका परिषह सहन करना; तथा मैलका परिषह सहन करना; हे पुत्र ! निश्चय मान कि ऐसा चारित्र कैसे पाला जा सकता है ? वधका परिषह और बन्धका परिषह कैसे विकट हैं? भिक्षाचरी कैसी दुष्कर है ? याचना करना कैसा दुष्कर है ? याचना करनेपर भी प्राप्त न हो, यह अलाभ परिषह कैसा दुष्कर है ? कायर पुरुषके हृदयका भेदन कर डालनेवाला केशलुंचन कैसा विकट है ? तू विचार कर, कर्मवैरीके लिए रौद्र ऐसा ब्रह्मचर्य व्रत कैसा दुष्कर है ? सचमुच ! अधीर आत्माके लिए यह सब अति- अति विकट है । प्रिय पुत्र ! तू सुख भोगनेके योग्य है । तेरा सुकुमार शरीर अति रमणीय रीतिसे निर्मल २४
SR No.009867
Book TitleDrushtant Kathao
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2011
Total Pages68
LanguageMarathi
ClassificationBook_Other & Rajchandra
File Size47 MB
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