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________________ भावनाबोध- अन्यत्वभावना प्रभुताको खो बैठू, यह सर्वथा अयुक्त है। इन पुत्रोंका, इन प्रमदाओंका, इस राजवैभवका और इन वाहन आदिके सुखका मुझे कुछ भी अनुराग नहीं है ! ममत्व नहीं है !" राजराजेश्वर भरतके अंतःकरणमें वैराग्यका ऐसा प्रकाश पडा कि तिमिरपट दूर हो गया। शुक्लध्यान प्राप्त हुआ। अशेष-कर्म जलकर भस्मीभूत हो गये !!! महादिव्य और सहस्र किरणसे भी अनुपम कांतिमान केवलज्ञान प्रकट हुआ। उसी समय इन्होंने पंचमुष्टि केशलुंचन किया। शासनदेवीने इन्हें संतसाज दिया; और ये महाविरागी सर्वज्ञ सर्वदर्शी होकर चतुर्गति, चौबीस दंडक, तथा आधि, व्याधि एवं उपाधिसे विरक्त हुए। चपल संसारके सकल सुख-विलाससे इन्होंने निवृत्ति ली, प्रियाप्रियका भेद चला गया; और ये निरन्तर स्तवन करने योग्य परमात्मा हो गये। प्रमाणशिक्षा-इस प्रकार ये छ खंडके प्रभु, देवोंके देव जैसे, अतुल साम्राज्यलक्ष्मीके भोक्ता, महायुके धनी, अनेक रत्नोंके धारक, राजराजेश्वर भरत आदर्शभुवनमें केवल अन्यत्वभावना उत्पन्न होनेसे शुद्ध विरागी हुए! सचमुच भरतेश्वरका मनन करने योग्य चरित्र संसारकी शोकार्तता और उदासीनताका पूरा-पूरा भाव, उपदेश और प्रमाण प्रदर्शित करता है। कहिये! इनके यहाँ क्या कमी थी? न थी इन्हें नवयौवना स्त्रियोंकी कमी कि न थी राजऋद्धिकी कमी, न थी विजयसिद्धिकी कमी कि न थी नवनिधिकी कमी, न थी पुत्र-समुदायकी कमी कि न थी कुटुम्ब-परिवारकी कमी, न थी रूपकांतिकी कमी कि न थी यशःकीर्तिकी कमी। इस तरह पहले कही हुई इनकी ऋद्धिका पुनः स्मरण कराकर प्रमाणसे शिक्षाप्रसादीका लाभ देते हैं कि भरतेश्वरने विवेकसे अन्यत्वके स्वरूपको देखा, जाना और सर्पकंचुकवत् संसारका परित्याग करके उसके मिथ्या ममत्वको सिद्ध कर दिया। महावैराग्यकी अचलता, निर्ममता और आत्मशक्तिकी प्रफुल्लितता, यह सब इस महायोगीश्वरके चरित्रमें गर्भित है। एक पिताके सौ पुत्रोंमेंसे निन्यानवें पुत्र पहलेसे ही आत्मसिद्धिको साधते थे। सौवें इन भरतेश्वरने आत्मसिद्धि साधी। पिताने भी यही सिद्धि साधी। उत्तरोत्तर आनेवाले भरतेश्वरी राज्यासनके भोगी इसी आदर्शभुवनमें इसी सिद्धिको प्राप्त हुए हैं ऐसा कहा जाता है। यह सकल सिद्धिसाधक मंडल अन्यत्वको ही सिद्ध करके एकत्वमें प्रवेश कराता है। अभिवन्दन हो उन परमात्माओंको! (शार्दूलविक्रीडित) देखी आंगळी आप एक अडवी, वैराग्य वेगे गया, छांडी राजसमाजने भरतजी, कैवल्यज्ञानी थया । चो, चित्र पवित्र ए ज चरिते, पाम्युं अहीं पूर्णता, ज्ञानीनां मन तेह रंजन करो, वैराग्य भावे यथा ॥ विशेषार्थ-जिसने अपनी एक उँगलीको शोभाहीन देखकर वैराग्यके प्रवाहमें प्रवेश किया, और जिसने राजसमाजको छोडकर केवलज्ञान प्राप्त किया, ऐसे उस भरतेश्वरके चरित्रको धारण १८
SR No.009867
Book TitleDrushtant Kathao
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2011
Total Pages68
LanguageMarathi
ClassificationBook_Other & Rajchandra
File Size47 MB
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