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________________ भावनाबोध - अन्यत्वभावना संवादे पण इन्द्रथी दृढ रह्यो, एकत्व साचुं कर्यु, एवा ए मिथिलेश, चरित आ, संपूर्ण अत्रे थयु ॥ विशेषार्थ-रानियोंका समुदाय चंदन घिसकर विलेपन करनेमें लगा हुआ था, उस समय कंकणकी खलभलाहटको सुनकर नमिराज प्रतिबुद्ध हुए। वे इन्द्रके साथ संवादमें भी अचल रहे और उन्होंने एकत्वको सिद्ध किया। ऐसे उन मुक्तिसाधक महावैरागीका चरित्र 'भावनाबोध' ग्रन्थके तृतीय चित्रमें पूर्ण हुआ। चतुर्थ चित्र अन्यत्वभावना (शार्दूलविक्रीडित) ना मारां तन रूप कांति युवती, ना पुत्र के भ्रात ना, ना मारां भृत स्नेहीओ स्वजन के, ना गोत्र के ज्ञात ना। ना मारां धन धाम यौवन धरा, ए मोह अज्ञात्वना; रे! रे ! जीव विचार एम ज सदा, अन्यत्वदा भावना ॥ विशेषार्थ-यह शरीर मेरा नहीं, यह रूप मेरा नहीं, यह कांति मेरी नहीं, यह स्त्री मेरी नहीं, ये पुत्र मेरे नहीं, ये भाई मेरे नहीं, ये दास मेरे नहीं, ये स्नेही मेरे नहीं, ये संबंधी मेरे नहीं, यह गोत्र मेरा नहीं, यह जाति मेरी नहीं, यह लक्ष्मी मेरी नहीं, ये महालय मेरे नहीं, यह यौवन मेरा नहीं और यह भूमि मेरी नहीं; यह मोह मात्र अज्ञानताका है। सिद्धगति साधनेके लिए हे जीव ! अन्यत्वका बोध देनेवाली अन्यत्वभावनाका विचार कर! विचार कर! मिथ्या ममत्वकी भ्रांति दूर करनेके लिए और वैराग्यकी वृद्धिके लिए उत्तम भावसे मनन करने योग्य राजराजेश्वर भरतका चरित्र यहाँ पर उद्धृत करते हैं : राजाधिराज भरतेश्वर दृष्टांत-जिसकी अश्वशालामें रमणीय, चतुर और अनेक प्रकारके तेज अश्वोंका समूह शोभा देता था; जिसकी गजशालामें अनेक जातिके मदोन्मत्त हस्ती झूम रहे थे; जिसके अंतःपुरमें नवयौवना, सुकुमारी और मुग्धा सहस्रों स्त्रियाँ विराजित हो रही थी; जिसकी निधिमें समुद्रकी पुत्री लक्ष्मी, जिसे विद्वान चंचलाकी उपमासे जानते हैं, स्थिर हो गयी थी; जिसकी आज्ञाको देवदेवांगनाएँ अधीन होकर मुकुटपर चढा रहे थे, जिसके प्राशनके लिए नाना प्रकारके षड्रस भोजन पल-पलमें निर्मित होते थे जिसके कोमल कर्णके विलासके लिए बारीक एवं मधुर स्वरसे गायन करनेवाली वारांगनाएँ तत्पर थीं; जिसके निरीक्षण करनेके लिए अनेक प्रकारके नाटक चेटक थे; जिसकी यशःकीर्ति वायुरूपसे फैलकर आकाशकी तरह व्याप्त थी; जिसके शत्रुओंको सुखसे शयन करनेका वक्त नहीं आया था; अथवा जिसके बैरियोंकी वनिताओंके नयनोंसे सदैव १४
SR No.009867
Book TitleDrushtant Kathao
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2011
Total Pages68
LanguageMarathi
ClassificationBook_Other & Rajchandra
File Size47 MB
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