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________________ भावनाबोध- एकत्वभावना 1 जाता हो ऐसी जलन व्याप्त हो गयी। रोम-रोममें सहस्र बिच्छुओंकी दंशवेदनाके समान दुःख उत्पन्न हो गया। वैद्य-विद्यामें प्रवीण पुरुषोंके औषधोपचारका अनेक प्रकारसे सेवन किया; परन्तु वह सब वृथा गया । लेशमात्र भी वह व्याधि कम न होकर अधिक होती गयी औषधमात्र दाहज्वरके हितैषी होते गये कोई औषध ऐसा न मिला कि जिसे दाहज्वरसे किंचित् भी द्वेष हो ! निपुण वैद्य हताश हो गये, और राजेश्वर भी उस महाव्याधि तंग आ गये । उसे दूर करनेवाले पुरुषकी खोज चारों तरफ चलती थी। एक महाकुशल वैद्य मिला; उसने मलयगिरि चंदनका विलेपन करनेका सूचन किया । मनोरमा रानियाँ चन्दन घिसनेमें लग गयीं। चंदन घिसनेसे प्रत्येक रानीके हाथोंमें पहने हुए कंकणोंका समुदाय खलभलाहट करने लग गया। मिथिलेशके अंगमें एक दाहज्वरकी असह्य वेदना तो थी ही और दूसरी उन कंकणोंके कोलाहलसे उत्पन्न हुई । वे खलभलाहट सहन नहीं कर सके; इसलिए उन्होंने रानियोंको आज्ञा की, "तुम चंदन न घिसो, क्यों खलभलाहट करती हो ? मुझसे यह खलभलाहट सहन नहीं हो सकती। एक तो मैं महाव्याधिसे ग्रसित हूँ, और यह दूसरा व्याधितुल्य कोलाहल होता है सो असह्य है।" सभी रानियोंने मंगलके तौर पर एक एक कंकण रखकर कंकण समुदायका त्याग कर दिया, जिससे वह खलभलाहट शांत हो गयी । नमिराजने रानियोंसे कहा, "तुमने क्या चंदन घिसना बन्द कर दिया ?” रानियोंने बताया, “नहीं, मात्र कोलाहल शांत करनेके लिए एक एक कंकण रखकर, दूसरे कंकणोंका परित्याग करके हम चंदन घिसती हैं कंकणके समूहको अब हमने हाथमें नहीं रखा है, इससे खलभलाहट नहीं होती।” रानियोंके इतने वचन सुनते ही नमिराजके रोम-रोममें एकत्व स्फुरित हुआ, व्याप्त हो गया और ममत्व दूर हो गया - "सचमुच ! बहुतोंके मिलने से बहुत उपाधि होती है। अब देख, इस एक कंकणसे लेशमात्र भी खलभलाहट नहीं होती; कंकणके समूहके कारण सिर चकरा देनेवाली खलभलाहट होती थी। अहो चेतन ! तू मान कि एकत्वमें ही तेरी सिद्धि है। अधिक मिलनेसे अधिक उपाधि है संसारमें अनन्त आत्माओंके सम्बन्धसे तुझे उपाधि भोगनेकी क्या आवश्यकता है? उसका त्याग कर और एकत्वमें प्रवेश कर । देख ! यह एक कंकण अब खलभलाहटके बिना कैसी उत्तम शांतिमें रम रहा है ? जब अनेक थे तब यह कैसी अशांति भोगता था ? इसी तरह तू भी कंकणरूप है । इस कंकणकी भाँति तू जब तक स्नेही कुटुम्बीरूपी कंकणसमुदायमें पड़ा रहेगा तब तक भवरूपी खलभलाहटका सेवन करना पडेगा; और यदि इस कंकणकी वर्तमान स्थितिकी भाँति एकत्वका आराधन करेगा तो सिद्धगतिरूपी महा पवित्र शांति प्राप्त करेगा ।" इस तरह वैराग्यमें उत्तरोत्तर प्रवेश करते हुए उन नमिराजको पूर्वजातिकी स्मृति हो आयी । प्रव्रज्या धारण करनेका निश्चय करके वे शयन कर गये। प्रभातमें मांगल्यरूप बाजोंकी ध्वनि गूँज उठी; दाहज्वरसे मुक्त हुए। एकत्वका परिपूर्ण सेवन करनेवाले उन श्रीमान नमिराज ऋषिको अभिवन्दन हो ! I (शार्दूलविक्रीडित) राणी सर्व मळी सुचंदन घसी, ने चर्चवामां हती, बुझ्यो त्यां ककळाट कंकणतणो, श्रोती नमि भूपति । १२
SR No.009867
Book TitleDrushtant Kathao
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
AuthorHansraj Jain
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2011
Total Pages68
LanguageMarathi
ClassificationBook_Other & Rajchandra
File Size47 MB
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