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________________ ॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ९६ ॥ । है शुद्ध कहिये, तौ सम्यक्णका घातक मिथ्यात्व अनंतानुबंधी कर्म था सो तो रह्या ।। हैं जिस गुणका आवरण जाय सो गुणं शुद्ध होय । ताते किंचत् हूं न वणै ॥ है सो कैसैं है, सो समाधान करिये है । सो अवरण तौ गया परि सब गुण सर्वथा । १ सम्यक् न भये । आवरण गयेतें सम्यक् सब गुण सर्वथा न भये ताः परमसम्यक् नाहीं। है हैं सवगुण साक्षात् सर्वथा शुद्ध सम्यक् होय तब परमसम्यक् ऐसा नाम होय ॥ विवक्षाप्र-१ हैं माणतें कथन प्रमाण है । तिस दर्शनपरि पौद्गलिक स्थिति जैसे नाश भई तबही इस हैं है जीवका जो सम्यक्त्वगुण मिथ्यात्वरूप परणम्या था, सोई सम्यक्गुण संपूर्ण स्वभावरूप है ई होय परणम्यां प्रगट भया । चेतन अचेतनकी जुदी प्रतीतिसौं सम्यक्तगुण निज जाति है १ स्वरूप होय परणम्या, तिसका लक्षण 'ज्ञानगुण अनंतशक्ति न करि विकाररूप होय है है रह्या था, तिन गुणकी अनंतशक्तिविष केतेक शक्ति प्रगट भई । सामान्यसौं नाम है है भयो । मति श्रुति कहिये । अथवा निश्चयज्ञान श्रुतपर्याय कहिये । जघन्यज्ञान कहिये।
SR No.009865
Book TitleAnubhav Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhmichand Venichand
PublisherLakhmichand Venichand
Publication Year
Total Pages122
LanguageMarathi
ClassificationBook_Other, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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