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________________ ॥अनुभवप्रकाश ॥ पान ३२ ।।. है आकाश काल पुद्गल अन्यजीव जीतनेक परवस्तु हैं तितने आपकरि जानिये है । सो है मैही हौं, मै इनका की हौं, यो मेरे काम हैं, "मै हौं सो ये हैं, ये हैं सो मै हौं”, हैं ऐसे परवस्तुकौं आपा जानै, आपकू पर जानै, तब लोकालोककी जाननेकी शक्ति है १ सर्व अज्ञानभावकू परणई है। सोई जीवको ज्ञानगुण अज्ञानविकार भया। यौही जीवका है १ दर्शनगुण था। जेते परवस्तुके भेद हैं, तिनकौं आपकरि देखे है, ये मै हाँ, आपा परमैं है है देखे है, आपाकों पर देखै हैं । लोकालोक देखनेकी जेती शक्ति थी, तेती सर्व शक्ति । है अदर्शनरूप भई । यौकरि जीवका दर्शनगुण विकाररूप परणम्या । अर जीवका सम्यहै क्त्वगुण था, सो जीवके भेदनकौं अजीवकी ठीकता करै है। चेतनकौं अचेतन, अचेत- १ इनकौं चेतन, विभावकों स्वभाव, स्वभावकौं विभाव, द्रव्य अद्रव्य, गुण अगुण, ज्ञानकों है है ज्ञेय, ज्ञेयकों ज्ञान, आपकौं पर, परकों आप यौहीकरी और सर्व विपरीतिकौं ठीकता है १ आस्तिक्य भावकों करै है । यौं जीवका सम्यक्त्व गुण मिथ्यारूप परणम्या। और जीव है
SR No.009865
Book TitleAnubhav Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhmichand Venichand
PublisherLakhmichand Venichand
Publication Year
Total Pages122
LanguageMarathi
ClassificationBook_Other, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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