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________________ ॥अनुभवप्रकाश ।। पान १८॥ . विशेष आवरणकौं गयेहू परमैं ज्ञान जाय, सो अशुद्ध । जो जेता अंश जिनमें रहै, सो है है शुद्ध । तातें गुपत केवल है । परि परोक्षज्ञानमैं प्रतीति निरावरणकी करिकरि आनन्द है बढाईये । ज्ञानी शुद्धभावनातै शुद्ध होय, यह निश्चय है । 'या मतिः सा गतिः' इति । १ वचनात् । अपना स्वरूप साक्षात् कैसैं होय ? सो कहिये हैं ॥ प्रथम निर्मलत्वभावतें संसारके भाव अधो करें। कैसे करें सो कहिये हैं। दृश्य-है १ मान जो सब रूपी जड, तामैं ममत्व न करना। काहेतॆभी जड तामैं आपा मानै सुख हैं कहा ? शरीरादि जड तामें आपा मानै सुख कहा? अर राग देष मोह भव भाव, असा-है १ ताभाव , तृष्णाभाव, अविश्रामभाव, अस्थिरभाव, दुःखभाव, आकुलभाव, खेदभाव, है अज्ञानभाव यातें हेय हैं ॥ आत्मभाव, ज्ञानमात्रभाव, शान्तभाव, विश्रामभाव, स्थिर-है है ताभाव, अनाकुलभाव, आनन्दभाव, तृप्तिभाव, निजभाव उपादेय हैं । आत्मपरिणतिमैं आत्मा है । मैं हौं ऐसी परिणतिकरि आपा प्रगटै। आपामैं है
SR No.009865
Book TitleAnubhav Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhmichand Venichand
PublisherLakhmichand Venichand
Publication Year
Total Pages122
LanguageMarathi
ClassificationBook_Other, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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