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________________ ॥ अनुभवप्रकाश ॥ पान ११५॥ है संध्याकी ललाई सूर्यउदयकौं करै है। तातै विविध परमगुरुविना शरीरादिराग केवल है है ज्ञानकौं अस्तताकौं कारण है। पंच परमगुरुका राग केवलज्ञान उदयकौं कारण है। है तातें विशेषकरि परमधर्मके दाता परमधर्मका अनुभवराग परमसुखदायक है ॥ हैं अर्थ अनंत अनर्थकों करै, सो किसही अर्थ नहीं, अर्थ सोही परमार्थ साधै । है तिसकरि कामसौं किस काम निजकामनासै काम सोही सुकाम सुधारै। धर्म मिथ्यारूप है अनंतसंसार करै, सो कहा धर्म? सर्वज्ञप्रणीत निश्चय निजधर्म व्यवहार रत्नत्रयरूप है कारण । मोक्ष सोही फेरि कर्म न बंधे, ऐसा विचारणा-जैसैं दीपक मंदिरमैं धरते है प्रकाश होय तो सब सूझै, तैसें ज्ञानीको ज्ञानप्रकाशसौं सव सूझै ॥ कैसे ज्ञानकरि विचारै, शरीरमैं चेतन है, दिष्टिद्धारकरि देखै है। ज्ञानद्वारकरि है जानै है । अपने उपयोगकरि आप चेतन हौं। आपा ऐसें जानै देहमैं देहकौं देखने है हारा मेरा स्वरूप चेतनरूप है । तौ जडकौं चलावै है, चेतनप्रेरक है । अचेतन अनु- है
SR No.009865
Book TitleAnubhav Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhmichand Venichand
PublisherLakhmichand Venichand
Publication Year
Total Pages122
LanguageMarathi
ClassificationBook_Other, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
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