SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॥ अनुभवप्रकाश || पान १०८ ॥ आगे विवेकका स्वरूपका स्वरूप परिणति शुद्धीका ऐसा जहां परमात्माका विलास नजीक भया तहां अनंतगुणका रस फिरि परिणाम वेदि समाधि लागी । निर्विकार धर्मका विलास प्रकाश भया । प्रतीति रागादिरहितभावन में मनोविकार बहोत गया । तब आगें अंश प्रज्ञात भया । तब परके जाननें : विस्मरणभाव आया । तब केवलज्ञान अतिशीघ्रकालमें पावै । परमात्मा होय लोकालोक लखावे | ऐसी अनुभवकी महिमा मनके विकार मिटैं हैं । सो मनविकार मोहके अभाव भयें मिटै है । सकलजीवकौं मोह महारिपु है । अनादि संसारी जीवकों नचावै है । चउरासीमैं 1 अरु संसारी हर्ष मानि मानि भवसमुद्रमैं गिरे हैं, परे हैं। आपाको धन्य मान है । देखो धिठौ ही भूलितें कैसी पकरी है । नैक निजनिधि अनंतसुखदायक कौन सभार है । यातें इनही जीवनकौं श्रीगुरूपदेशामृत पानक जोग्य है । इसतें मोह मिटै अनुभव प्रगटै सो कहिये --
SR No.009865
Book TitleAnubhav Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakhmichand Venichand
PublisherLakhmichand Venichand
Publication Year
Total Pages122
LanguageMarathi
ClassificationBook_Other, Spiritual, Religion, & Sermon
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy