SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६४ ) क्योंकि जब हम संसार के प्रत्येक पदार्थ से अपना सम्बन्ध तोड़ लेते हैं तब संसार के प्रत्येक पदार्थ भी हम से अपना सम्बन्ध तोड़ देते हैं। उस समय संसार के पदार्थों का हमारी दृष्टि से निरपेक्ष वस्तुलक्षी स्वभाव प्रकट होता है क्योंकि व्यक्तिपरक दृष्टि समाप्त हो जाती है । हम स्वयं संसार के सम्बन्धों के अतिरिक्त और क्या हैं ? किसी के पुत्र, किसी के पिता, किसी के पति, किसी के स्वामी, किसी के अनुचर, किन्तु यदि इन सब सम्बन्धों का विच्छेद कर दें तो हम क्या रह जाएँ ? एक अकेली इकाई और जब इस अकेली इकाई का अनुभव होता है तब हमें लगता है कि हम कौन हैं ? उस समय जैसे संसार के सब सहारे हम से छूट जाते हैं और जब संसार के समस्त सहारे हमसे छूट जाते हैं, हम निराधार हो जाते हैं तो हमारी जीवन शक्ति एक आधार की खोज करती है और उसे वह आधार स्वयं में ही मिल जाता है। और यह स्वयं का आधार अन्य आधार की अपेक्षा कहीं अधिक सुदृढ़, सुस्थिर और स्वाधीन है । उस समय संसार के अच्छे से अच्छे श्राधार भी स्वावलम्बन के आगे दुःखरूप नजर आने लगते हैं । दुःख का पहचान लेना ही दुःख से मुक्ति है । क्योंकि कोई व्यक्ति दुःख की सचाई को जानकर दुःख में नहीं रहना चाहेगा और जो व्यक्ति दुःख में नहीं रहना चाहेगा उसे संसार की कोई शक्ति बलपूर्वक दुःख में नहीं रख सकती । किन्तु यदि हम स्वयं दुःख को ही सुख मानकर उससे चिपटा रहना चाहें तो संसार की कोई शक्ति हमें उससे पृथक् भी नहीं कर सकती । इला
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy