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________________ २४ पञ्चपरमेष्ठी : व्यक्ति जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है आत्मनिष्ठा । पञ्चपरमेष्ठी इसलिये नहीं है कि हम उनका आश्रय लें। जो व्यक्ति पुरुष में ब्रह्म को जानता है, वही परमेष्ठी को जानता है। पुरुष में ब्रह्म को जानने का यह सिद्धान्त समस्त भारतीय परम्परा की एक अमूल्य निधि है । छान्दोग्योपनिषद् में गुरु ने श्वेतकेतु को इसी तथ्य का ज्ञान कराया कि हे श्वेतकेतु ! वह ब्रह्म तुम स्वयं ही हो, जिसकी तुम्हें उपासना करनी है।२ पञ्चास्तिकाय में कहा गया कि जिसने आत्मसाक्षात्कार नहीं किया चाहे वह पदार्थों का तत्त्वज्ञ भी हो, तीर्थंकरों का भक्त भी हो, शास्त्र में रुचि भी रखने वाला हो, और संयम तथा तप का पालन भी करने वाला क्यों न हो किन्तु निर्वाण अभी उससे बहत दूर है। महाभारत ने इसी परम्परा में घोषणा की, कि संसार में मनुष्य से बढ़कर श्रेष्ठ और कुछ नहीं है। दशवकालिक सूत्र ने कहा कि जो व्यक्ति धर्म का पालन करता है, उसके सामने देवगण भी प्रणत हो जाते हैं। देवता लौकिक सम्पत्ति और विभूति के चरम विकास के प्रतीक हैं और धर्म आत्मविकास की परिणति है। इस प्रकार जैन दर्शन ने हमें श्वेताश्वतरोपनिषद् में गिनाये हुए काल स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत, जन्म और पुरुष इन बाह्य तथ्यों से मुक्ति का मार्ग यह सुझाया कि व्यक्ति पुरुषार्थी बने, आत्मावलम्बी बने । क्योंकि श्वेताश्वतरोपनिषद् भक्ति परम्परा पर अधिक बल देती है इसलिये उसने सुख दुखों का कर्ता प्रात्मा को भी नहीं माना, आत्मा को भी असमर्थ माना। शायद १. ये पुरुषे ब्रह्म विदुस्ते विदुः परमेष्ठिनम् -अथर्ववेद, १०.७.१७. २. तत्त्वमसि श्वेतकेतो -छांदोग्योपनिषद् ६.८.४. ३. सपयत्थं तित्थयरं अभिगदबुद्धिधस्स सुत्तरोइस्स दूरतरं णिव्वाणं संजमतवसंपनोत्तस्स । -पंचास्तिकाय, १७०. ४. आत्माप्यनीशी सुखदु:खहेतोः । --श्वेताश्वतरोपनिषद् १.१.१२.
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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