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________________ ( ७२ ) हुआ है, तो फिर तुम पुरुषार्थ की निन्दा क्यों करते हो? क्योंकि पुरुषार्थ से तो तुम्हें देवपद प्राप्त हुआ है । और यदि यह पद तुम्हें बिना पुरुषार्थ ही प्राप्त हो गया तो यह तुम्हें ही क्यों प्राप्त हुआ, किसी दूसरे को क्यों नहीं हो गया ?" हमने ऊपर कहा कि गोसाल के अनुयायी सद्दालपुत्र के साथ भी महावीर की चर्चा हुई थी। महावीर ने सद्दालपुत्र से पूछा, "हे सद्दालपुत्र, यह जो घड़े तुम बना रहे हो, ये पुरुषार्थ और पराक्रम से बनते हैं या बिना हाथ पैर हिलाये, बिना पुरुषार्थ और परिश्रम के ।" सद्दालपुत्र ने कहा-“हाथ पैर हिलाना जैसी कोई चीज ही नहीं है, न परिश्रम ही होता है । सब पदार्थ नियत हैं ।” महावीर ने कहा, "हे सद्दालपुत्र, यदि कोई व्यक्ति तुम्हारे घड़ों को जो कच्चे या पक्के हैं, चुरा ले, चूर-चूर कर दे, तोड़ डाले, छिन्न-भिन्न कर दे, बिखेर दे, या तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ अनन्त भोगों को भोगता हुआ प्रसन्नता का जीवन बिताये, तो उस पुरुष को तुम क्या दण्ड दोगे।" सद्दालपुत्र बोला-“हे भदन्त, मैं उस पुरुष को या तो कोतूंगा या मार दूंगा या बाँधूंगा या मथ डालूंगा या डांटुंगा या मारूंगा या पीस डालूंगा या उसकी निन्दा करूंगा या अकाल में ही उसके प्राण हरण कर लूंगा।" महावीर ने कहा-"यदि कोई पुरुष तुम्हारे घड़ों को तितर-बितर कर देता है, या अग्निमित्रा के साथ विहार करता है तो तुम उस पुरुष को कोसोगे, यहाँ तक कि मार भी दोगे, तो तुम जो कहते हो, हाथ पैर हिलाना कोई चीज नहीं है, सब पदार्थ नियत हैं, यह मिथ्या है।" बौद्धों के ग्रन्थ दीघ निकाय में गोसाल का मत इन शब्दों में दिया हैआत्मपुरुषार्थ कुछ नहीं होता, परोपकार कुछ नहीं होता, पुरुषार्थ कुछ नहीं होता, बल कुछ नहीं होता, शक्ति कुछ नहीं है, व्यक्ति का हाथ पैर हिलाना और पराक्रम कुछ नहीं है। भगवतीसूत्र में गोसाल का यह मत दिया है कि ८४ लाख कल्पों में घूमता हुअा जीव स्वयं ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है । हमने ऊपर इस प्रकार की सम्मति के विरुद्ध महावीर की प्रतिक्रिया दी, महात्मा बुद्ध की भी ऐसी ही प्रतिक्रिया थी। गोसाल का खण्डन करते हुए महात्मा बुद्ध कहते हैं-व्यक्ति में वीर्य है, और जन्म मरण के चक्कर से छुड़ा देने वाले सफल उत्साह की उसमें पूर्ण सम्भावना है, बशर्त है कि वह इस लक्ष्य के लिये पूरे दिल से संघर्ष करे।' सूत्रकृतांग में नियतिवाद के सम्बन्ध में यह कहा १. Zimmer H., Philosophies of India, पृ० २२६ ।
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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