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________________ ( ७० ) दूसरी ओर कुछ काण्ट जैसे विद्वान् हैं जिन्होंने हमारे सामने इस समस्या को निष्पक्ष भाव से रखा । उनका कहना है कि एक ऐसे बौद्धिक प्राणी के रूप में जो अपने मार्ग को स्वयं प्रशस्त करता है मनुष्य यह चाहता है कि उसे कर्म की स्वतन्त्रता हो, किन्तु साथ ही साथ उसे यह भी लगता है कि वह अपने भूतकाल से बन्धा हुआ है और वह यह नहीं समझ पाता कि इन दो परस्पर विरोधी तथ्यों में कैसे समन्वय स्थापित करे ।' डा० ग्रीन ने इस सम्बन्ध में उस तथ्य की ओर हमारा ध्यान दिलाया है जिसका संकेत हमने ऊपर भी किया। वे कहते हैं, “यदि मैं आज वह बन सकता हूँ जिसके लिये मुझे इसकी अपेक्षा न करनी पड़े कि मैं कल क्या था, या जो कुछ मैं आज हैं, उसकी अपेक्षा किये बिना, यदि कल मैं कुछ बन सकूँ तो आत्मसुधार के लिए जितने प्रयत्न और प्रायश्चित्त किए जाते हैं, और जिनका फल भी हमें मिलता है, और प्रयत्न द्वारा एक आदत बनाकर जो हम सफलता प्राप्त करते हैं, और एक उज्ज्वल भविष्य की आशा जो हमें सप्राण बनाती है, ये सब समान रूप से असम्भव हो जाएंगे।"२ भाव यह है कि हम वर्तमान में जो कुछ करते हैं, वह एक उज्ज्वल भविष्य की आशा को लेकर करते हैं और यदि हमें यह विश्वास न दिलाया जाय, कि हम अपने वर्तमान कर्म द्वारा भविष्य को सुधार सकते हैं तो हम वर्तमान में शिथिल हो जाएंगे, हममें कोई कार्य करने का उत्साह न रहेगा । किन्तु इसके विपरीत यदि हम यह मानते हैं कि भूतकाल ने हमें इतना जकड़ दिया है कि हम वर्तमान में अपनी इच्छा-शक्ति के स्वातन्त्र्य का कोई प्रयोग कर ही नहीं सकते, तो इसका यह अर्थ होगा कि भूतकाल का भूत ही हमारे वर्तमान को निगल जाएगा। इसलिए डब्लू० जेम्स नामक विद्वान् का कहना है कि यदि भूतकाल के भय से, भूतकाल में जो कुछ हमने किया है उसके भार से हमें मुक्ति पानी है, तो हमें यह मानना होगा कि हम अपने वर्तमान द्वारा भूतकाल के प्रभावों को परिवर्तित भी कर सकते हैं, निस्सत्त्व भी कर सकते हैं । हमने ऊपर कुछ पश्चिमी विद्वानों का उल्लेख किया, यह उचित होगा कि भारतवर्ष में इस सम्बन्ध में कैसी-कैसी विचारधारा रही हैं, इस पर भी विचार १. Hastings James, Encyclopedia of Religion and Ethics, Vol. ___VI, पृ० १२४. २. Green, T.H., Prolegomena to Ethics, Oxford, 1899, पृ० १२६. ३. James, W., Pragmatism, New York, 1948, पृ० १२१.
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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