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________________ ( ६५ ) स्वभाववाद का एक दूसरा भी पक्ष है और वह पक्ष है प्रकृति की शक्ति में विश्वास । अग्नि उष्ण है, जल शीतल है, इन्हें उष्ण या शीतल किसी ने बनाया नहीं, यह इनकी प्रकृति है। जैन धर्म इस सम्बन्ध में स्वभाववादियों का साथ देता है। वह भी यह मानता है कि संसार के समस्त पदार्थ अपने सहज गुणों सहित क्रिया-प्रतिक्रिया द्वारा विश्व का संचालन स्वयं करते हैं । उसका कोई स्रष्टा नहीं है। किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि मैं अपना निर्माण अपने आप नहीं कर सकता और मेरे संस्कार ही मेरा निर्माण करते हैं। संस्कार मेरे द्वारा निर्मित हैं और निर्मित पदार्थ निर्माता से बड़ा नहीं होता। वे संस्कार मेरी शक्ति से इतने अधिक प्रबल नहीं हो सकते कि मुझे पंगु बना दें। इसी प्रकार हमें प्रकृतिवाद और सांस्कृतिक विकास के बीच भी विवेक करना होगा। मनुष्य जाति ने जो सांस्कृतिक विकास मनुष्य के सुख के लिये किया है, वह उपादेय है, उसे अपनाना चाहिए। पर जो विकास प्रतिस्पर्धा में गलत दिशा में हो गया, वह तो वस्तुतः विकास नहीं है, ह्रास ही है। कौन समझदार आदमी इस बात का स्वागत न करेगा यदि आज समस्त संसार के राष्ट्र अपने उन समस्त विध्वंसक अस्त्र-शस्त्र को नष्ट कर दें और आगे उनका निर्माण बन्द कर दें, जिन अस्त्र-शस्त्रों का हमने पिछली शताब्दियों में निर्माण किया है। होड़ा-होड़ी में जिनके निर्माण में जितना धन लगाया जा रहा है, उतना धन यदि मनुष्य जाति के रचनात्मक कार्यों में लगाया जाय, तो मनुष्य जाति की समस्याओं का अधिकांश भाग तुरन्त हल हो सकता है। पर जहाँ हमने अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण किया, वहाँ हमने बहुत सी उपयोगी कलाएँ भी विकसित की हैं और उन कलाओं का वैज्ञानिक पद्धति से वस्तुपरक निष्पक्ष विवेचन होना चाहिए कि उनका कितना अंश हमारे लिए उपयोगी है और कितना अनुपयोगी है और उपयोगी अंश का ग्रहण और अनुपयोगी अंश का त्याग करना चाहिए। यह स्वभाववाद की सम्यक् -दृष्टि होगी और हम समस्त मानव जाति के विकास को छोड़कर यदि आदिम युग के मनुष्य को पुनर्जीवित करना चाहें तो यह स्वभाववाद की मिथ्या-दृष्टि होगी।
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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