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________________ सब समय का प्रभाव है। किन्तु काल एक जड़ सत्ता है, वह हमें कठपुतली की तरह नहीं नचा सकती। हम अपने पुरुषार्थ से कालजयी हो सकते हैं, कालातीत हो सकते हैं। समय के इशारे पर नाचने की बजाय, समय को अपने इशारे पर नचा सकते हैं। युग के काल धर्म पर तो सभी सामान्य मनुष्य चलते हैं पर युगनिर्माता वे होते हैं जो युग के काल-धर्म को अपने पुरुषार्थ से गति देते हैं, दिशा देते हैं। यदि सभी लोग समय के प्रवाह में बहने वाले होते तो मानव जाति का कोई उत्थान, कोई विकास सम्भव ही नहीं था और एक समय में क्योंकि काल एक समान ही होता है, अतः सब व्यक्तियों की अवस्था भी एक समान ही होनी चाहिए थी, व्यावहारिक जीवन में हम देखते हैं कि व्यक्ति यह कहकर कि समय आने पर स्वयं हो जाएगा, अपने उत्तरदायित्व को टाल देते हैं और अपनी आत्मा के वीर्य को अभिव्यक्त नहीं होने देते । जैन दर्शन ऐसे लोगों को सावधान करता है कि हम समय के दास नहीं हैं, समय हमारा दास है। पर ऐसे लोग जो समय असमय का विचार किये बिना, एवं समय के प्रभाव तथा उसकी गति को समझे बिना केवल पुरुषार्थ के भरोसे रहते हैं, उनका पुरुषार्थ कोई विशेष प्रभाव नहीं दिखलाता। हर युगनिर्माता महापुरुष जहाँ अपने काल धर्म से ऊपर उठा है, वहाँ उसने अपने काल धर्म को पहचाना भी खूब है। आज हम देखते हैं कि धर्म के क्षेत्र में लोग काल की गति को न समझने के कारण और धर्म के सत्यों को शाश्वत सनातन मानने के कारण बहुत सी ऐसी परम्पराओं को ढोते चले जा रहे हैं जो काल धर्म के अनुकूल नहीं पड़तीं। धर्म के सिद्धान्त शाश्वत हैं, पर संसार में नित्य कूटस्थ कुछ भी नहीं है और उन धर्म के सिद्धान्तों को जब तक कालधर्म की कसौटी पर कस कर नहीं परखा जाएगा, तब तक सनातन धर्म की दोहाई देने से धर्म हमारे जीवन में कोई उपयोगी कार्य नहीं कर सकेगा। जैन धर्म का यह मूल-भूत सिद्धान्त, कि नित्यता और परिवर्तन साथ-साथ चलते हैं, इस बात के लिए एक चेतावनी है कि धर्म को उसकी आत्मा नित्य रहने पर भी अपना बाह्य स्वरूप कालधर्म, युगधर्म के अनुसार बदलना होगा। यदि कोई धर्म काल-धर्म की अवहेलना करेगा तो निश्चय ही वह कुछ दिनों में केवल शास्त्रों में लिखा जाने वाला एक सिद्धान्त मात्र बन कर रह जायेगा। जीवन में उसका उपयोग और व्यवहार समाप्त हो जाएगा । स्वयं जैन धर्म का इतिहास इस बात का साक्षी है कि इस धर्म में समय-समय पर परिवर्तन हुए; आगम युग में प्राचार्य जिस भाषा और शैली में उपदेश देते थे, उसमें केवल
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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