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________________ जीव-अजीव : एक अनादि सम्बन्ध जैन दर्शन ने जीवन को इन दो भागों में विभाजित कर दिया–अमूर्त और मूर्त । क्योंकि जीवन अमूर्त है इसलिए उस मौलिक अमूर्त तत्त्व को जीव नाम दिया गया और मूर्त तत्त्व की जीवन से भिन्नता दिखलाने के लिये उसे अजीव नाम दिया गया और इस प्रकार यह दो तत्त्व जीव और अजीव मौलिक मान लिये गये । भारत में ऐसी दार्शनिक परम्पराओं की भी कमी नहीं है जो जीवन में केवल एक तत्त्व अमूर्त को ही सत्य मानती हैं और मूर्त तत्त्व को अमूर्त तत्त्व से ही निकलने वाला एक अमौलिक पदार्थ मानती हैं। इस प्रकार वे एक ही मूल तत्त्व की कल्पना करती हैं और वह तत्त्व है चैतन्य । जड़ का विकास चैतन्य से ही होता है। दूसरी ओर ठीक इसके विपरीत जड़ से ही चैतन्य का विकास मानने वाली चार्वाक परम्परा भी है। जैन दर्शन इन दोनों परम्पराओं के बीच में है। वह इन दोनों को सत्य मानता है। यह विषय मलतः तत्त्वज्ञान का है कि जीवन का कौन सा मौलिक तत्त्व सत्य है। किन्तु जैसा हम ऊपर कह चुके हैं तत्त्व ज्ञान का प्राचारमीमांसा से घनिष्ठ सम्बन्ध है। समन्तभद्र ने कहा है कि तत्त्व ज्ञान के बिना पुण्य पाप और बन्ध मोक्ष सब की व्यवस्था समाप्त हो जाएगी। उदाहरणतः यदि हम बौद्धों की यह दृष्टि मान लें कि प्रत्येक पदार्थ क्षण क्षण में मूलतः ही परिवर्तित हो जाता है तो धर्म की समस्यायें तो दूर, सांसारिक समस्यायें जैसेकि आर्थिक लेन-देन, पति-पत्नी सम्बन्ध, और 'यह वही है', ऐसी स्मृति भी असम्भव हो जाएगी। १. चतुभ्यः खलु भूतेभ्यश्चैतन्यमुपजायते -सर्वदर्शनसंग्रह, पृ० ७. २. नैकान्तवादे सुखदु:खभोगो न पुण्यपापे न च बन्धमोक्षौ -स्याद्वादमञ्जरी, बम्बई, १९३५, श्लोक ३५. ३. प्रतिक्षणं भङ्गिषु तत्पृथक्त्वान्न मातृघाती स्वपतिः स्वजाया । दत्तग्रहो नाधिगतस्मृतिर्न तत्त्वार्थसत्यं न कुलं न जातिः ।। -युक्त्यनुशासन, सहारनपुर, १९५१, श्लोक ५.
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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