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________________ कषायनिषेध : पञ्चव्रत का अमूर्त रूप इन चार का निषेध जब कुछ अधिक मूर्त रूप में आया तो पञ्चव्रत बन गए। किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि जीवन स्वयं एक अमूर्त सत्ता है। उसकी समस्याएं भी अमूर्त हैं और उन समस्याओं के समाधान भी अमूर्त हैं। किन्तु हम जीवन से इतना दूर हैं कि हमें अमूर्त शब्दावली समझ में नहीं आती। हम अमूर्त विषयों को भी मूर्त रूप में लाकर ही सीखने और समझने के अभ्यस्त हो गये हैं। क्रोध कषाय पर विजय को हमने अधिक मूर्त रूप देने के लिए अहिंसा नाम दिया। जीवन की सबसे बड़ी शत्रु हिंसा है क्योंकि जीवन के अन्य शत्रु जीवन का नाश आंशिक रूप में ही कर सकते हैं पर हिंसा उसे समूल रूप से मिटाना चाहती है। जीवन का पोषण अन्य तत्त्वों से भी होता है किन्तु प्रेम जीवन का सबसे बड़ा पोषक तत्त्व है। इसलिए अहिंसा को सर्वप्रथम स्थान मिला। माया के निषेध को मृषावाद विरमण व्रत के अन्तर्गत स्थान मिला और माया और लोभ दोनों का एक समन्वित निषेध अस्तेय-व्रत के अन्तर्गत हुआ । अपरिग्रह के अन्तर्गत लोभ और मान दोनों का निषेध हुआ । प्रेम जो जीवन का सबसे बड़ा पोषक तत्त्व है, उसका ही एक अन्य विकृत रूप था, जिसका निषेध करने के लिए ब्रह्मचर्य नामक एक पंचम महाव्रत की आवश्यकता हुई । इस प्रकार चार कषाय विजय, चतुर्याम धर्म के माध्यम से पंचमहाव्रत के रूप में विकसित हो गई ।' इन पंचमहाव्रतों ने जहाँ हमें यह समझने की सुविधा दी कि जीवन की चार प्रधान निषेधात्मक शक्तियों का यदि हम निषेध करें तो व्यवहार में उसका क्या रूप होगा, वहाँ दूसरी ओर कषाय विजय, जो एक आन्तरिक गुण था, उसके स्थान पर एक दृष्टि से बाह्य आचरण को प्रमुखता दे दी। यद्यपि इन व्रतों के आन्तरिक पक्ष को निश्चय नाम देकर सिद्धान्त में प्राचार्यों ने उस ही पक्ष को महत्ता दी, पर मानव स्वभाव ने जो बाहर की नकल करने में अधिक कुशल होता है, बाह्य १. तुलनीय-स्थानाङ्गसूत्र, ४.१.२६६.
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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