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________________ ( ३७ ) की है, तो आनन्द और रस जैसे शब्दों का प्रयोग इतनी बार किया है कि चाहे ये दर्शन हमें कितना भी विश्वास क्यों न दिलाना चाहें हम यह नहीं मान सकते कि उपनिषदों में जिस मुक्त अवस्था का वर्णन है, वह केवल दुख से रहित अवस्था है और उसमें सुख नहीं है ।' बौद्ध दर्शन के सम्बन्ध में भी यही कहा जाता है कि महात्मा बुद्ध निर्वाण को एक ऐसी चीज़ मानते थे जैसे दीपक की ज्योति बुझने पर समाप्त हो जाती है । किन्तु पिटकों में ऐसे वाक्य प्राते हैं जिनमें यह स्पष्ट कहा गया है कि निर्वाण परम सुख है । 3 उपनिषद् और गीता के सबसे अधिक प्रतिनिधित्व करने वाले वेदान्त दर्शन ने केवल दुख की निवृत्ति को कोई महत्त्व नहीं दिया । वस्तुतः उसने दुख की सत्ता ही स्वीकार नहीं की । न्यायदर्शन ने जब यह कहा था कि दुख का मूल कारण अज्ञान है, तो इसमें ही वेदान्त की इस मान्यता के बीज छिपे हुए हैं कि दुख सत्य है, एक भ्रममात्र है, क्योंकि प्रज्ञान सत्य नहीं होता, वह एक भ्रममात्र होता है । वेदान्त दर्शन ने बड़ी ऊहापोह पूर्वक समस्त दर्शनों का खण्डन करके यह निर्विवाद रूप से सिद्ध कर दिया, कि मुक्ति की अवस्था एक आनन्द की अवस्था है। इस मुक्ति के आनन्द की अवस्था को उपनिषदों में श्रौर अनेक शास्त्रों में बहुत ही काव्यात्मक ढंग से कहने का प्रयास किया गया है । ४ किन्तु परिणाम यही निकला है कि यह गूंगे का गुड़ है, जिसका रस लिया तो जा सकता है पर बतलाया नहीं जा सकता । इस प्रकार वेदान्तदर्शन में आकर समस्त वैदिक दर्शनों की एक परिणति हो जाती है और वह परिणति यह है कि दुख असत्य है, हमारा स्वरूप श्रानन्दरूप है। जिस क्षरण हम अपने स्वरूप का साक्षात्कार करें उस ही क्षरण श्रानन्द हमें यहीं और अभी उपलब्ध हो सकता है। वह आनन्द प्राप्य नहीं है, संस्कार्य नहीं है, और विकार्य या उत्पाद्य भी नहीं है ।' अर्थात् जिस प्रकार कोई पदार्थ दूरी पर स्थित होता है, और १. नानन्दाभिव्यक्तिर्मुक्तिनिर्धर्मत्वात् — सांख्यसूत्र ५.७४. २. नैवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् — सौन्दरनन्द १६.२८-२६. ३. निब्बानं परमानि सुखानि ४. बृहदारण्यकोपनिषद्, २.४.१२. ५. नैष्कर्म्यसिद्धि, पूना, १६२५, १.५३. — Pali-English Dictionary, पृ० ३६४.
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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