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________________ भेदाभेद : एक समन्वय हमने जो विवेचन यहाँ किया है, उसमें पाप और पुण्य की स्थिति तो स्पष्ट होती ही है, एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य भी सम्मुख पाता है। क्या संसार में हम किसी भी तथ्य को उसके वातावरण के परिप्रेक्ष्य से हटाकर देख सकते हैं ? क्या संसार में कोई भी सत्य निरपेक्ष हो सकता है ? हम पाप को बुरा और पुण्य को अच्छा कहते हैं और दूसरी ओर पाप और पुण्य दोनों की निन्दा करते हैं, दोनों को समान बतलाते हैं। और इस प्रकार आपाततः एक बहुत बड़े विरोध में पड़ रहे हैं। किन्तु क्या संसार में अभेद में भेद और भेद में अभेद नहीं दिखायी पड़ता ? अन्ततः एकान्तिक सत्य क्या है? सभी सत्य तो किसी न किसी मान्यता से जुड़े हुए हैं, सापेक्ष हैं। जब तक हम यह दृष्टि नहीं अपनाएँगे, अपनी दृष्टि को ही सर्वोपरि और सर्वथा शुद्ध मानने का हमारा अभिमान नहीं टूटेगा और हमारी दष्टि सीमित ही रह जाएगी; हम दूसरे की दृष्टि से कभी किसी समस्या पर विचार नहीं कर सकेंगे। इस प्रकार दूसरे भी हमारी दृष्टि को नहीं समझ सकेंगे और एक निरन्तर संघर्ष बना रहेगा। यह एक काल्पनिक भय नहीं है। धर्म और दर्शन का लम्बा इतिहास इस सत्य का साक्षी है कि वे सब संत महात्मा और प्राचार्य जो सच्चे मन से मानवता के कल्याण के लिये उपदेश देते रहे, जहाँ मनुष्य जाति की एक जीवन-ज्योति को सुरक्षित रखते रहे, वहाँ मनुष्य और मनुष्य में टकराव के कारण भी बने । अभिमान में भरा हुआ मनुष्य अपने-अपने मत को सत्य मानकर दूसरे के खून का प्यासा हो गया और अपने इस कृत्य पर लज्जित होने की बजाय उसने सदा गौरव का अनुभव किया कि वह सत्य की रक्षा के लिये असत्य से लड़ते समय अपने प्राणों पर भी खेल जाता है। किन्तु जब दो ऐसे गुट आपस में लड़ें तो दोनों के मन में यह पूर्ण विश्वास था, कि दोनों सत्य के लिये लड़ रहे हैं, दोनों असत्य के विरुद्ध लड़ रहे हैं, दोनों एक पुण्य कार्य कर रहे हैं। और मनुष्य के इतिहास की यह कैसी विडम्बना है कि वस्तु स्थिति यह होती है कि जब सत्य का नाम लेकर ऐसी लड़ाई की जाती है, तो दोनों ही पक्ष वस्तुतः सत्य पर होते
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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