SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञान : एक आन्तरिक गुण किन्तु महात्मा बुद्ध ने जो कुछ कहा था वह भी गलत नहीं था । अनेकांत की दृष्टि में गलत कुछ होता ही नहीं । महावीर ने कहा—सत्य ही लोक में सारभूत है ।' गीता में कहा है कि संसार में ज्ञान से अधिक पवित्र कुछ नहीं है ।" ज्ञान की अग्नि समस्त संसारों को क्षण भर में भस्मसात् कर देती है । अ पाश्चात्य दार्शनिक यह कहते रहे कि ज्ञान ही वास्तविक बल है । तब महात्मा बुद्ध ने यह क्यों कहा कि हमारी ये जिज्ञासाएं अनावश्यक हैं; मोक्ष की प्राप्ति में सहायक नहीं हैं, प्रत्युत बाधक हैं । वस्तुस्थिति यह है कि हम ज्ञान में और सूचनाओं के संग्रह में भेद नहीं कर रहे। हम तथ्यों पर तथ्य जानते चले जा रहे हैं। पर उन तथ्यों का जो जानने वाला है, उसका ज्ञान हमें नहीं है और इसलिए हमारा वह समस्त ज्ञान, शास्त्र की दृष्टि से कहें तो मिथ्या ज्ञान है और अगर कुछ कोमल भाषा का प्रयोग करते हुए आधुनिक ढंग से कहें, तो वह सूचना मात्र है । वह मेरे अन्दर से उद्भूत नहीं हुआ, बाहर से आया है । यह प्रत्यक्ष है कि ज्ञान का मूल स्रोत मेरे अन्दर है, मेरे बाहर नहीं। बाहर जितने पदार्थ हैं, सब ज्ञ ेय हैं । ज्ञाता मेरे स्वयं के अन्दर उपस्थित है । फिर बाहर से प्राप्त होने वाला ज्ञान ज्ञान कैसे कहला सकता है ? विशेषकर यदि ज्ञाता का ज्ञान ही न हो, तो बाह्य पदार्थों का ज्ञान क्या करेगा ? और फिर यदि जीवन का लक्ष्य ठीक नहीं है, यदि जीवन की दिशा गलत है, तो मेरे सारे ज्ञान और मेरे सारे कर्म मुझे कहाँ ले जाएँगे ? ज्ञान और क्रिया एक पंछी के दो पँख हैं, और श्रद्धा उसकी आस्था है, जो उसे यह प्रतिक्षरण बोध कराती १. सच्चं हि लोए सारभूयं । २. स हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । गीता, ४.३८. ३. ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा । गीता, ४.३.७. -प्रश्नव्याकरण, २
SR No.009861
Book TitleJain Jivan Darshan ki Prushtabhumi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDayanand Bhargav
PublisherRanvir Kendriya Sanskrit Vidyapith Jammu
Publication Year1975
Total Pages102
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy