SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth लाख पूर्व का सम्पूर्ण आयुष्य पूर्ण करके मोक्ष में गए। अष्टापद पर्वत पर आठों कर्मों को नष्ट करके आठ प्रकार की शुभ सिद्धियों से सम्पन्न मनुष्य शुभ भावनाओं से भाविक होने पर मोक्ष रूप परम स्थान प्राप्त कर सकते हैं। अष्टापद पर आए हुए अष्ट प्रातिहार्यों से युक्त श्री जिनेश्वर भगवान् की यदि अष्टप्रकारी पूजा की जाय तो वह उससे सोने का बड़ा भारी ढेर मिलता है अर्थात् उसे खूब खूब सम्पत्ति मिलती है। प्रसन्न मुख और उत्तम हृदयवाला जो पुरुष शुद्ध भावना के साथ उत्कृष्ट तपश्चर्या करता है वह संसार के दुःख से छुटकारा पा लेता है। शुभ भावनावाला जो पुरुष इस अष्टापद पर्वत की यात्रा करता है वह तीन अथवा सात भवों में ही सिद्ध रूप मन्दिर में प्रवेश करता है। शाश्वत अरहन्त भगवानों के मन्दिर जैसा यह अष्टापद महातीर्थ उज्ज्वल पुण्यराशि की तरह तीनों लोकों को अत्यन्त पवित्र करता है। भरत चक्रवर्ती के निर्वाण के पश्चात् शोक में मग्न सूर्ययश ने अष्टापद पर्वत पर आकर निर्विकार मन से ऊँचे मन्दिरों की श्रेणियाँ बनवाईं। मुख्य मंत्रियों द्वारा नत वचनों से समझाए जाने पर आहस्ता आहस्ता शोक से मुक्त होकर उसने राज्य का कारोबार अपने हाथों में संभाला। बादमें अपने प्रताप से शत्रुओं को पराजित करके चन्द्र जैसे उज्ज्वल यश द्वारा कुवलय (कमल और कु-वलय अर्थात् पृथ्वी मण्डल) का विकास किया। छह खण्डात्मक भरतक्षेत्र के स्वामी श्री भरत चक्रवर्ती के पुत्र, स्वयं तीन खण्ड पृथ्वी के स्वामी और जिसकी आज्ञा कोई तोड़ नहीं सकता ऐसे राजनीतिज्ञ सूर्ययश ने दुष्टों को नष्ट कर डाला। जिस प्रकार आकाश में सूर्य और चन्द्र इन दोनों का प्रताप चमकता है उस तरह इस पृथ्वी पर अकेले सूर्ययश का ही प्रताप चमकने लगा। राज्य-प्राप्ति के समय इन्द्र द्वारा पहनाया गया भरत चक्रवर्ती का मुकुट सूर्ययश ने धारण किया जिससे उसका दुगुना उदय हुआ। इस मुकुट के माहात्म्य से शत्रुओं को जीतनेवाला सूर्ययश राजा देवताओं द्वारा सदा सेवा करने योग्य हुआ। उसके प्रताप ने शत्रुओं के महलों में, उनके यशरूप जल को सुखाकर विशेष रूप से जलने पर भी, घास उगाया-यह एक प्रकार की विचित्रता ही है। राधावेध का प्रण पूर्ण करने से प्राप्त, कनक विद्याधर की लड़की और सभी स्त्रियों में शिरमोर- ऐसी जयश्री उसकी मुख्य पत्नी हुई। दो अष्टमी और दो चतुर्दशी इन चार पर्वो का तो वह विशेष रूप से प्रत्याख्यान (पच्चक्खाण), पौषध आदि तप द्वारा आराधन करता था। अपने जीवन की अपेक्षा पर्व के पालन में उसे जो प्रेम था उससे यही प्रतीत होता है कि इन पर्व-तिथियों के दिन विशेषरूप से आराधना करके जीवन की सार्थकता करनी चाहिए। -16 315 Bharat Chakravarti
SR No.009858
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 336 to 421
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy