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________________ ॥ भरत चक्रवर्ती ॥ योऽनन्तोऽव्यक्तमूर्तिर्जगदखिलभवद्भाविभूतार्थमुक्तः, सर्वज्ञः सर्वदर्शी सकलजननतः संस्तुतः साधुसंधैः । अक्षीणः क्षीणकर्मा वचनपथमतिक्रम्य यो दूरवर्ती, स श्रीमानादिनाथस्तव दिशतु सदा मंगलं पुण्य लभ्यः ।। जो अनन्त, अव्यक्त स्वरूपवाले, जगत् के सभी भूत, भविष्य और वर्तमान पदार्थों से मुक्त अर्थात् सर्वथा उदासीन, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सभी लोगों द्वारा प्रणाम किए जाते, साधुओं के समूह द्वारा स्तुत, अक्षय, सब कर्मों का नाश करनेवाले, वचनपथ का अतिक्रमण करके अर्थात् अनिर्वचनीय होकर दूर सिद्धक्षेत्र में रहनेवालेऐसे पुण्य से प्राप्त होनेवाले श्री आदिनाथ प्रभु तुम्हारा सर्वदा मंगल करें। __ भगवान् महावीर कहते हैं कि- हे इन्द्र ! निर्वाणरूपी सीढ़ी के उपर चढ़ने में तत्पर और इसीलिये कान के लिये, अमृत जैसा इस चक्रवर्ती भरत का चरित्र अब तुम सुनो। तीर्थयात्रा के बाद अयोध्या में वापिस लौटने पर शुभ कार्य में प्रवृत्त सोमयश आदि को अलग अलग देश सोंपकर अत्यन्त वात्सल्यभाव रखनेवाले भरत चक्रवर्ती ने (स्नेह के कारण मन न मानने पर भी) किसी तरह बिदा किया। बाद में भोजन, वस्त्र, आदि से सकल संघ का सम्मान करके उन्होंने अपनी दो भुजाओं द्वारा पृथ्वी का भार स्वीकार किया। कुछ दिनों के बाद उद्यानपति द्वारा 'विचार करते हुए भगवान् अष्टापद पर समवसरण में पधारे हैं'- ऐसी बात सुनकर उन्हें वन्दन करने की इच्छा से वह वहाँ पर गए। श्री सर्वज्ञ भगवान् के मुखरूपी कमल से दान का महान् फल सुनकर चक्रवर्ती ने कहा कि ये श्रमण-साधु मेरा दान ग्रहण करें। इस पर जगद्गुरु भगवान् ने कहा कि 'निर्दोष होने पर भी राजपिण्ड (राजा के घर का आहार आदि) मुनि ग्रहण नहीं कर सकते, इसलिये इस बारे में प्रार्थना करना नहीं।' इस पर फिर से भरतने कहा, 'हे स्वामिन ! दान के योग्य महान् पात्र मुनि है। यदि इन्हें भी में दान नहीं दिया जा सकता तो फिर में क्या करूं ? इस पर इन्द्र ने कहा कि 'हे राजन ! यदि आपको दान देना ही है तो गुणों में श्रेष्ठ साधर्मिक श्रावक भाइयों को दान दो । ऐसे इन्द्र के कथन को सुनकर अयोध्या में पहुंचने के बाद साधर्मिक भाइयों को प्रतिदिन भोजन कराने लगे । जिस प्रकार श्री आदीश्वर प्रभु से धर्म की प्रर्वतना हुई उसी प्रकार भरत चक्रवर्ती से साधर्मिक वात्सल्य का रिवाज तब से प्रचार में आया । Bharat Chakravarti Vol. VI Ch. 37-B, Pg. 2529-2539 -363114 Bharat Chakravarti
SR No.009858
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 336 to 421
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages86
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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