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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth ने कृषि संस्कृति और नागरिक सभ्यता के जीवन में प्रवेश किया। उस समय की प्रजा ने इन कार्यों की जानकारी के प्रति ऋषभदेव को प्रजापति की उपाधि से भी सम्बोधित किया है। यथा प्रजापतिर्यः प्रथमं जीनिविषुः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । - (स्वयम्भू स्त्रोत) आजीविका और व्यवसाय की व्यवस्था प्रारम्भ होने से समाज में वर्णों का भी निर्माण हुआ, जो कार्यकुशलता और गुणों के आधार पर था । जो विपत्ति से रक्षा करते थे वे क्षत्रिय कहलाए, और जो जीवन - निर्वाह के लिए कृषि, व्यापार, पशुपालन आदि कार्य करते थे वे वैश्य कहलाए । शिल्प द्वारा आजीविका और सेवा करने वाले को शुद्र कहा गया। महाभारत के शान्तिपर्व में ऋषभदेव को आदिदेव भी कहा गया है क्योंकि वे छात्र धर्म के आदि प्रर्वतक थे। क्षत्रियों में से ही अहिंसा जीवन शैली को अपनाने वाले लोग बाद में ब्राह्मण के नाम से जाने गए। इसी समय आतप, वर्षा और शीत आदि से रक्षा के लिए विभिन्न भवनों, नगरों और जनपदों का निर्माण हुआ । इस प्रकार कबीलों की सभ्यता से नागर सभ्यता में प्रवेश कराने वाले ऋषभदेव को आदि ब्रह्मा भी कहा गया है। * राज्य एवं दण्ड व्यवस्था जैसे-जैसे समाज नागर-सभ्यता का अभ्यासी हुआ वैसे ही वहाँ विवाह व्यवस्था और समाज-व्यवस्था की भी आवश्यकता हुई । ऋषभदेव ने इस सम्बन्ध में भी मार्गदर्शन किया और प्रजा की इच्छा से जब उन्हें पिता नाभिराज ने राजा बनाया तब ऋषभदेव ने राज्यतन्त्र और दण्ड व्यवस्था का भी विधान किया। उस समय के राजाओं में दण्डधर राजा और महामण्डलिक राजा के पद भी निर्मित हुए। कुरुवंश और सोमवंश की स्थापना भी हुई। इस प्रकार ऋषभदेव ने समाज की आवश्यकता के अनुसार विभिन्न नागरिक व्यवस्थाओं का सूत्रपात किया। उनके विविध लोकोपयोगी कार्यों से प्रभावित होकर ऋषभदेव के लिए इक्ष्वाकु, गौतम, काश्यप, पुरू, कुलधर, विश्वकर्मा आदि नाम भी प्रचलित हो गए थे। * तपस्वी जीवन : : ऋषभदेव ने कर्मभूमि की रचना करके जन कल्याण तो कर लिया था किन्तु वे आत्मकल्याण के मार्ग को नहीं भूले थे। जीवन के प्रसंगों से उन्हें संसार की दशा और मनुष्य जीवन की सार्थकता का बोध बना हुआ था। एक दिन राजदरबार मे नर्तकी नीलांजना की अचानक मृत्यु देखकर ऋषभदेव के मन में सांसारिक भोगों से वैराग्य उत्पन्न हो गया। अन्य ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि उपवन में भ्रमण करते हुए पुष्पों की क्षणिकता देखकर उन्हें वैराग्य जन्मा था। ऋषभदेव के विरक्ति भाव की प्रशंसा देवों ने भी आकर की। ऋषभदेव ने ज्येष्ठ पुत्र भरत को अयोध्या का राज्य देकर और अन्य पुत्रों को विभिन्न देशों के राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर ली। जिस स्थान पर उन्होंने दीक्षा ली थी वह स्थान प्रजाग / प्रयोग के नाम से प्रसिद्ध हो गया । ऋषभदेव ने मुनि अवस्था में कठोर तपस्या की। उनकी जटाएँ भी बढ़ गईं। इस कारण उनका केशी नाम भी प्रसिद्ध हो गया। साधक जीवन में सर्वप्रथम राजा श्रेयांस ने ऋषभदेव को जिस दिन इक्षुरस का प्रथम आहार दिया वह दिन अक्षय तृतीया के नाम से प्रसिद्ध हो गया। पुराणों से ज्ञात होता है कि ऋषभदेव ने एक हजार वर्षों तक मुनि अवस्था में अनेक देशों में विहार किया। अन्त में पुरिमताल नगर, as 217 a Bhagwan Rushabhdev
SR No.009857
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 249 to 335
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages87
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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