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________________ 2 ।। कर्मयोगी और आत्मधर्म-प्रणेता भगवान् भगवान् ऋषभदेव भारतीय संस्कृति में जो प्राचीन ऋषि, मुनि और आत्मविद्या के सिद्धस्त महात्मा हुए हैं, उनमें भगवान् ऋषभदेव का प्रमुख स्थान है ऋषभदेव भारतीय संस्कृति और चिन्तन के विकास के पुरोधा हैं। श्रमण संस्कृति के आदि प्रवर्तक के रूप में उन्हें प्राचीन साहित्य और पुरातत्व में स्मरण किया गया है । भारत में प्रचलित जैन धर्म को साम्यता के प्रारम्भिक काल में श्रमण, व्रात्य, आर्हत, निर्ग्रन्थ आदि नामों से जाना जाता था । वैदिक साहित्य में इन शब्दों का प्रयोग जैन धर्म के अर्थ में किया गया है और भगवान् ऋषभदेव को जैनधर्म का आदि प्रर्वतक माना गया है। जैन पुराणकारों ने भी भगवान् ऋषभदेव के चरित्र में यही चित्रण किया है । उन्हें कृषि सभ्यता और नागरिक जीवन का जन्मदाता भी माना है। भगवान् ऋषभदेव द्वारा ही स्थापित जैन धर्म को नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर ने अपने युग के अनुसार विभिन्न रूपों में विकसित किया है। जैनधर्म के आदि प्रणेता भगवान् ऋषभदेव का संक्षिप्त जीवन चरित इस प्रकार ।। प्रेमसुमन जैन * पूर्वज जैन मान्यता के अनुसार सृष्टि का कोई आदिकाल नहीं होता और न ही कोई अंतिम काल । सृष्टि निरन्तर कालचक्र के अनुसार परिवर्तित होती रहती है। इसी परिवर्तन के प्रारम्भिक कल्प में भगवान् ऋषभदेव का अस्तित्व स्वीकार किया गया है, जिसे आधुनिक इतिहासकार आदि मानव का पाषाण युग कहते हैं । उस समय मनुष्य अविकसित था । उसे सामाजिक बोध नहीं था । भाई बहिन ही पति-पत्नी के रूप में रहने लगते थे, इसे युगलियां संस्कृति का काल कहा जाता है। उस समय वृक्षों से ही जीवन निर्वाह हो जाता था। अतः मनुष्य कोई कर्म नहीं करता था। इस कारण उस वन-संस्कृति को भोग युग भी कहा गया है। जैन पौराणिक मान्यता के अनुसार उस समय चौदह कुलकर हुए हैं, जो तत्कालीन मनुष्यों को जीवन-निर्वाह के कार्यों की शिक्षा देते थे। ऐसे कुलकरों में चौदहवें कुलकर श्री नाभिराज हुए, जिन्होंने भोग - भूमि के लोगों को कर्मूभमि की ओर गमन करना सिखाया। इनको मनु भी कहा गया है । इन्हीं नाभिराज और उनकी पत्नी मरुदेवी के पुत्र के रूप में ऋषभदेव का जन्म हुआ। * जन्म एवं परिवार ऋषभदेव के जीवन आदि के सम्बन्ध में जो विवरण तिलोयपण्णत्ति, आदिपुराण, हरिवंशपुराण आदि प्राचीन ग्रन्थों में उपलब्ध हैं उसके अनुसार ऋषभदेव का जीव आषाढ कृष्णा द्वितीया के दिन महारानी : Karmayogi & Aatmadharma-praneta Bhagwan Rushabhdev Vol. VII Ch. 45-A, Pg. 2944-2948 as 215 a Bhagwan Rushabhdev
SR No.009857
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 249 to 335
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages87
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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