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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth देखते हो ।”३५ वे ध्यान में तल्लीन रहने के कारण उन्मतवत् प्रतीत होते थे। वातरशना से अभिप्राय हैवात-वायु, रशना-मेखला। अर्थात् जिनका वस्त्र वायु हो यानि अचेलक मुनि। रामायण की टीका में जिन वातरशन मुनियों का उल्लेख किया गया है, वे ऋग्वेद में वर्णित वातरशन मुनि ही ज्ञात होते हैं। उनका वर्णन उक्त वर्णन से मेल भी खाता है। तैत्तिरियाण्यक में भगवान ऋषभदेव के शिष्यों को वातरशन ऋषि और ऊर्ध्वमंथी कहा है।३६ वातरशन मुनि वैदिक परम्परा के नहीं थे। क्योंकि वैदिक परम्परा में सन्यास और मुनि-पद को पहले स्थान ही नहीं था। श्रमण शब्द का उल्लेख तैत्तिरियारण्यक और श्रीमद्भागवत के साथ ही बृहदारण्यक उपनिषद्३७ और रामायण में भी मिलता है। इण्डो-ग्रीक और इण्डो-सीथियन के समय भी जैनधर्म श्रमणधर्म के नाम से प्रचलित था। मैगस्थनीज ने अपनी भारत-यात्रा के समय दो प्रकार के मुख्य दार्शनिकों का उल्लेख किया है। श्रमण और ब्राह्मण उस युग के मुख्य दार्शनिक थे।३९ उस समय उन श्रमणों का बहुत आदर होता था। कॉलबुक ने जैन सम्प्रदाय पर विचार करते हुए मैगस्थनीज द्वारा उल्लिखित श्रमण-सम्बन्धी अनुच्छेद को उद्धृत करते हुए लिखा है, कि श्रमण वन में रहते थे सभी प्रकार के व्यसनों से अलग थे, राजा लोग उनको बहुत मानते थे और देवता की भाँति उनकी पूजा-स्तुति करते थे।४० वातरशना जैन परम्परा के श्रमणों से मिलता-जुलता है। जिनसहस्रनाम में उल्लेख आता है, कि वातरशना, निर्ग्रन्थ और निरम्बर ये पर्यायवाची शब्द हैं,४१ इससे यह तो स्पष्ट होता है कि ऋग्वेद की रचना के समय जैन श्रमण विद्यमान थे, और ऐसे श्रमणों की ऋषि-सम्प्रदाय में इन्द्रादिवत् स्तुति की जाती थी। सायण ने वातरशना श्रमण का उल्लेख किया है।४२ आचार्य सायण के अनुसार वातरशना मुनियों को श्रमण व ऋषि भी कहा जाता था। उनके मतानुसार केतु, अरुण और वातरशन ये तीनों ऋषि-संघ थे, जो चित्त को एकाग्र कर अप्रमत्त दशा को प्र थे। इनकी उत्पत्ति प्रजापति से हुई थी। जब प्रजापति ब्रह्मा को सृष्टि रचने की इच्छा उत्पन्न हुई, तो उन्होंने तपस्या की, और शरीर को प्रकम्पित किया, उस प्रकम्पित तनु के मांस से तीन ऋषि उत्पन्न हुएअरुण, केतु और वातरशना नखों से वैखानस और बालों से बालखिल्य मुनि उत्पन्न हुए।४३ उक्त सृष्टि-क्रम में सर्वप्रथम ऋषियों की उत्पत्ति बताई है, इससे प्रतीत होता है, कि यह धार्मिक ३५ मुनयो वातऽरशनाः पिशंगा बसते मला । वातस्यानु घ्राजिम् यन्ति यद्देवासो अविक्षत। उन्मदिता मौनेयन वातां आ तस्थिमा वयम् । शरीरेदस्माकं यूयं मासो अभिपश्यथ ।। -ऋग्वेद १०११३६।२ ३६ वातरशना हवा ऋषयः श्रमण ऊर्ध्वमन्थिनो बभूवुः । -तैत्तिरियारण्यक २७।१,पृ. १३७ ३७ बृहदारण्यकोपनिषद् ४।३।२२ ३८ तपसा भुञ्जते चापि, श्रमण मुञ्चते तथा- रामायण, बालकाण्ड १४१२२ ३९ एन्शियेन्ट इण्डिया एज डिस्काइब्ड बाय मैगस्थनीज एण्ड एरियन, कलकत्ता, १९१६, पृ. ९७-६८ ४० ट्रान्सलेशन आफ द फ्रेग्मेन्टस आफ द इण्डिया आफ मेगस्थनीज, बान १८४६, पृ. १७५ ४१ दिग्वासा वातरशनो निर्ग्रन्थेजोनिरम्बरः। -महापुराण, जिम. २५।२०४ ४२ वातरशना वातरशनस्य पुत्रा मुनयोऽतीन्द्रियार्थदर्शिनो जूतिवातजूति प्रभृतयः पिशंगाः, पिशंगानिः कपिलवर्णानि मला मलिनानि वल्कलरूपाणि वासांसि वसते आच्छादयन्ति। -आचार्य सायण ४३ स तपो तप्यत। स तपस्तप्त्वा शरीरमधुनुत। तस्य यन्मांसमासीत। ततोऽरुणाः केतवो वातरशना। ऋषय उतिष्ठन् ये नखाः, ते वैखानसा ये बालाः ते बाल-खिल्या। -तैत्तिरियारण्यक भाष्य, सायण १।२३।२-३ -36 257 - - Rushabhdev : Ek Parishilan
SR No.009857
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 249 to 335
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages87
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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