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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth में ऐसा कोई संकेत नहीं है, कि यह अध्ययन भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रों को कहा था, तथापि आवश्यकचूर्णि', आवश्यकहारिभद्रीयावृत्ति एवं आवश्यकमलयगिरिवृत्ति तथा सूत्र-कृतांगचूर्णि आदि ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से यह वर्णन है, कि भगवान् ऋषभदेव ने प्रस्तुत अध्ययन अपने अट्ठानवें पुत्रों को कहा, जिससे उन्हें सम्बोध प्राप्त हुआ। वैतालिक का अर्थ है जगाने वाला। यह अध्ययन अनन्तकाल से सोई हुई आत्मा को जगाने वाला है। जैसा नाम है वैसा ही गुण इस अध्ययन में रहा है। आज भी इस अध्ययन को पढ़कर साधक आनन्द विभोर हो जाता है और उसकी आत्मा जाग जाती है। भगवान् ने कहा- पुत्रो ! आत्महित का अवसर कठिनता से प्राप्त होता है। भविष्य में तुम्हें कष्ट न भोगना पड़े अतः अभी से अपने विषय-वासना से दूर रखकर अनुशासित बनो। जीवन-सूत्र टूट जाने के पश्चात् पुनः नहीं जुड़ पाता। एक ही झपाटे में बाज जैसे बटेर को मार डालता है वैसे ही आयु क्षीण होने पर मृत्यु भी जीवन को हर लेती है। जो दूसरों का परिभव अर्थात् तिरस्कार करता है वह संसार वन में दीर्घकाल तक भटकता रहता है। साधक के लिए वन्दन और पूजन एक बहुत बड़ी दलदल के सदृश है।१० भले ही नग्न रहे, मास-मास का अनशन करे और शरीर को कृश एवं क्षीण कर डाले किन्तु जिसके अन्तर में दम्भ रहता है वह जन्म-मरण के अनन्त चक्र में भटकता ही रहता है। जो क्षण वर्तमान में उपस्थित है वही महत्वपूर्ण है अतः उसे सफल बनाना चाहिए।२ समभाव उसी को रह सकता है जो अपने को हर किसी भय से मुक्त रखता है।१३ पुत्रो ! अभी इस जीवन को समझो। क्यों नहीं समझ रहे हो, मरने के बाद परलोक में सम्बोधि का मिलना बहुत ही दुर्लभ है। जैसे बीती रातें फिर लौटकर नहीं आतीं इसी प्रकार मनुष्य का गुजरा हुआ जीवन फिर हाथ नहीं आता।१४ मरने के पश्चात् सद्गति सुलभ नहीं है।१५ अतः जो कुछ भी सत्कर्म करना है, यहीं करो। आत्मा अपने स्वयं के कर्मों से ही बन्धन में पड़ता है। कृतकर्मों के फल भोगे बिना मुक्ति नहीं है।६ मुमुक्षु तपस्वी अपने कृत-कर्मो का बहुत शीघ्र ही अपनयन कर देता है, जैसे की पक्षी अपने पंखों को फड़फड़ा कर उन पर लगी धूल को झाड़ देता है।१७ मन में रहे हुए विकारों के सूक्ष्म शल्य को निकालना कभी-कभी बहुत ही कठिन हो जाता है।८ बुद्धिमान को कभी किसी से कलह- झगड़ा नहीं करना चाहिए। कलह से बहुत बड़ी हानि होती है। सन् १९१६। राक-आगमोदय समिति 1, काण्ड १ एवं वेयालियं अज्झयणं भासंति 'संबुज्झह किं न बुज्झह' एवं अट्ठाणउईवित्तेहिं अट्ठाणउई कुमार पव्वइयत्ति। आवश्यकचुर्णि, पृ. २१० पूर्वभाग, प्रकाशक - ऋषभदेव केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम, सन् १९२८। २ आवश्यकहारिभद्रीयावृत्ति, प्रथम विभाग, पृ. १५२, प्रकाशक-आगमोदय समिति, सन् १९१६ । ३ आवश्यकमलयगिरिवृत्ति, पूर्वभाग, पृ. २३१, प्रकाशक-आगमोदय समिति, सन् १९२८ । ४ वैतालिका बोधकराः। -अमरकोश, काण्ड २. वर्ग ९ श्लोक ९७। ५ सूत्रकृतांग १।२।२।३० ६ वही १२।३७ ७ सूत्रकृतांग १।२।३।१० ८ वही १२१२ ९ वही १।२२१ १० वही १।२२।११ ११ वही १२।१९ १२ वही १२।३।१९ १३ वही १।२।२।१७ १४ संबुज्झह किं न बुज्झह? संबोही खलु पेच्च दुल्लहा। णो हूवणमंति राइयो, नो सुलभं पुणरावि जीवियं ।। -सूत्र. १।२।११ १५ सूत्र. १।२।१।३ १६ वही १२।१४ १७ वही १२१११५ १८ वही १।२।२।११ Rushabhdev : Ek Parishilan -26 226 -
SR No.009857
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 249 to 335
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages87
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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