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________________ ६ गया है और शिव भी कैलाशवासी माने जाते हैं। महाभारत के अनुशासन पर्व में जहाँ एक ओर शिव का ऋषभ नाम आया है, वहीं दूसरी ओर आदिपुराण में वृषभदेव को शुंभ, शिव मृत्युंजय, महेश्वर, शंकर, त्रिपुरारि तथा त्रिलोचन आदि नामों से संबोधित किया गया है। शिव के मस्तक पर जटामुकुट और ऋषभनाथ के साथ कंधों पर लटकती जटाओं और यक्ष के रूप में गाय के मुखवाले गोमुख यक्ष की परिकल्पना भी दोनों की एकात्मकता का संकेत देते हैं। गोमुख यक्ष का वाहन वृषभ है और उसके एक हाथ में परशु दिखाया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि महायोगी शिव के स्वरूप के आधार पर ही जैन परम्परा के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव की कल्पना की गयी। भागवतपुराण में वर्णित ऋषभ का सन्दर्भ ऋगवेद के केशी और वातरशना मुनि के स्वरूप से साम्यता रखता है। ऋग्वेद की एक ऋचा में केशी और वृषभ का एक साथ उल्लेख आया है। ऋग्वेद में उल्लिखित वातरशना मुनियों के नायक केशी मुनि का ऋषभदेव के साथ एकीकरण हो जाने से जैन धर्म की प्राचीनता पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। इस आधार पर जैन धर्म की संभवित प्राचीनता ई. पू. १५०० तक मानी जा सकती है। श्रीमद्भागवत में भी ऋषभदेव का उल्लेख आया है जिसके अनुसार बासुदेव ऋषभरूप में नाभि और मरुदेवी के यहाँ अवतरित हुए । जैनेतर पुराणों मार्कण्डेय पुराण कूर्मपुराण, अग्निपुराण वायुमहापुराण" ब्रह्माण्डपुराण, वाराहपुराण, १३ १५ ' लिंगपुराण, विष्णुपुराण तथा स्कन्दपुराण में ऋषभदेव के अनेक उल्लेख हैं जो शिव से सन्दर्भित 3 1 ऋषभ का जन्म इन्द्र द्वारा रचित अयोध्या नगरी के राजा व चौदह कुलकरों में अन्तिम कुलकर नाभिराज के यहाँ हुआ था । २२ श्वेताम्बर परम्परा में इनका जन्म चैत्र शुक्ल अष्टमी के दिन माना गया है ।२३ श्वेताम्बर परम्परा में ऋषभ के नामकरण के सम्बन्ध में उल्लेख है कि मरूदेवी द्वारा स्वप्न में वृषभ को देखने तथा बालक के उरूस्थल पर वृषभ का शुभलांछन होने के कारण ही उनका नाम ऋषभदेव रखा ५. ६. ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ 22222 १९ २० वही, पृ. ६ । ऋषभ त्वं पवित्राणां योगिनां निष्कलः शिवः । वाराहपुराण, अध्याय ७४ । लिंगपुराण, अध्याय ४७ १९-२२। विष्णुपुराण, द्वितीयांश, अध्याय १. २७-२८ । स्कन्दपुराण, माहेश्वर खण्ड के कौमारखण्ड, अध्याय ३७. ५७/ २२ आदिपुराण १२ ३-६। २३ स्कन्दपुराण, माहेश्वर खण्ड के कौमारखण्ड, अध्याय ३७, ५७ । २१ आदिपुराण २५.१००-२१७/ हीरालाल जैन, पू. नि., पृ. १५। कर्कदेव वृषभीयुक्त आसीद्, अवावचीत् सारथिरस्य केशी, (ऋग्वेद १०. १०२, ६) । हीरालाल जैन, पू. नि., पृ. १७/ वही । श्रीमद् भागवत १-३.१३ (हस्तीमल, पृ. ५४ ) । मार्कण्डेयपुराण, अध्याय ५०.३९-४०, पृ. ५८-५९। कूर्मपुराण, अध्याय ४१. ३७-३८। अग्निपुराण, अध्याय १०. १०-११। वायुमहापुराण पूर्वार्ध, अध्याय ३३. ५०-५१। ब्रह्माण्डपुराण पूर्वार्ध, अनषइगपाद, अध्याय १४.५९-६० । Shri Ashtapad Maha Tirth as 221 a Jain Mahapuran
SR No.009857
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 249 to 335
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages87
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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