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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth अर्थात्- अष्टापद, उज्जयंत गिरनार, गजाग्रपद, धर्मचक्र, पार्श्वरथावर्तनग एवं चच्चरुप्राय तीर्थ को नमस्कार करता हूँ। हमारा दुर्भाग्य यह है कि इसमें से उज्जयंत-गिरनार को छोडकर बाकी सभी तीर्थ लुप्त हो गए हैं। इस गाथा में अष्टापद तीर्थ का उल्लेख प्राप्त होता है। तत्पश्चात् आवश्यक नियुक्ति में कुछ विस्तार से वर्णन प्राप्त होता है। यथा अह भगवं भवमहणो, पूव्वाणमणूणगं सयसहस्सं । अणुपुव्वीं विहरीऊणं, पतो अठ्ठावयं सेलं ।।४३३ ।। अठ्ठावयंमि सेले, चउदस भत्तेण सो महरिसीणं। दसहि सहस्सेहिं समं, निव्वाणमणुत्तरं पत्तो ॥४३४।। निव्वाणं चिइगागिई, जिणस्स इरवाग सेसयाणं च। सकहा थूभर जिणहरे, जायग तेणाहि अम्मित्ति ॥४३५ ।। अर्थात्- संसार के दुःखों का अन्त करनेवाले भगवान् ऋषभदेव संपूर्ण एक लाख वर्षों तक पृथ्वी पर विहार करके अनुक्रम अष्टापद पर्वत के ऊपर पहुँचे। वहाँ छःउपवास के पश्चात दस हजार मुनिगणों के साथ निर्वाण को प्राप्त हुए। जहाँ भगवान ने निर्वाण प्राप्त किया था वहाँ देवों ने स्तूप बनाए और भरत चक्रवर्ती ने चोवीस तीर्थंकरों के वर्ण एवं परिमाण के समान सपरिकर मूर्तियाँ स्थापित की और जिनमंदिर बनाया। प्रायः इसी तरह का ही वर्णन हमें सभी ग्रन्थों में प्राप्त होता है। हमें सबसे विस्तृत वर्णन कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य श्री हेमचन्द्र विरचित त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र के प्रथम पर्व के छठे सर्ग में प्राप्त होता है। महावीर स्वामी भगवान् के पूर्वभवों का वर्णन करते हुए मरिचि की कथा के अन्तर्गत ऋषभदेव एवं अष्टापद का वर्णन प्राप्त होता है। ___मरिचि ने भगवान् ऋषभदेव प्ररूपित संयम मार्ग की कठोरता को सहन करने में असमर्थ होने के कारण कुछ छूट लेने का विचार किया। उन्होंने त्रिदण्डी वेश धारण किया, सिर मुण्डन करवाया, सुवर्ण की जनोई रखने लगे। चाखडी पहनना शुरू किया, चँदनादि का लेप भी करते थे एवं कषाय वस्त्र धारण करते थे। किन्तु जब भी कोई उन्हें पूछते थे तब वे अपनी आचार पालन की असमर्थता को ही बताते थे। एवं सभी को उपदेशादि के द्वारा प्रतिबोधित करके भगवान् ऋषभदेव के पास ही संयम हेतु भेजते थे। एक बार परमात्मा ऋषभदेव अष्टापद पर पधारे थे। यहाँ आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने अष्टापद का वर्णन किया है वह विशेष ध्यानाकर्षक है। यथा वह पर्वत अत्यन्त श्वेत होने के कारण शरद ऋतु के बादलों का एक कल्पित पुञ्ज जैसा, अत्यन्त ठण्डी के कारण जम गया हो ऐसा क्षीर समुद्र के वेलाकूट जैसा, ऊँचे श्रृंगवाला ऋषभ-बैल जैसा श्वेत धवल अष्टापद पर्वत था। उस समय भरत चक्रवर्ती अयोध्या में राज्य कर रहे थे। वह अष्टापद पर जाकर वंदन कर के देशना सुनते हैं। पुनः ऋषभदेव अष्टापद आते हैं और भरत चक्री पुनः अयोध्या से ऋषभदेव भगवान् के पास पहुँचते हैं और अत्यन्त भक्ति एवं भावविभोर होकर प्रश्न पूछते हैं कि इस पर्षदा में कोई भावि तीर्थंकर हैं जिनको वंदन करके अपना जीवन चरितार्थ करना चाहता हूँ। तब ऋषभदेव भगवान् ने फरमाया की आपका ही पुत्र मरिचि इसी भरतक्षेत्र में पोतनपुर नाम के नगर में त्रिपुष्ट-त्रिपृष्ट नाम के प्रथम वासुदेव होंगे। अनुक्रम से महाविदेह में धनंजय एवं धारीणी नाम की दंपती के पुत्र प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती होंगे। एवं बहुत समय परिभ्रमण करने के प्रश्चात् इसी भरतक्षेत्र में महावीर नामक चौबीसवें तीर्थंकर होंगे। __इस चरित्र के अन्त में दर्शाया है कि परमात्मा ऋषभदेव अष्टापद पर आए। साथ में दश हजार मुनि थे उनके साथ भगवान ने छह उपवास का तप किया और अन्त में पादोपगमन अनशन स्वीकार किया। Period of Adinath -61322
SR No.009855
Book TitleAshtapad Maha Tirth 01 Page 088 to 176
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages89
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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