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________________ ॥ आदिपुराण ॥ प्रास्ताविक: श्री जिनसेनाचार्य रचित महापुराण का आदि अंग आदिपुराण है। उसमें प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव और उनके प्रथम पुत्र भरत चक्रवर्ती के जीवनचरित्र का वर्णन किया गया है। अत्र निर्दिष्ट आदिपुराण के सैंतालीसवें पर्व के श्लोकों में भरत चक्रवर्ती श्री ऋषभदेव भगवान् को कैलास पर्वत पर वंदन करने के लिए आते हैं। ऐसे उल्लेख प्राप्त होते हैं। यहाँ अष्टापद को कैलास पर्वत के रूप में दर्शाया गया है । तद्यूयं संसृतेर्हेतुं परित्यज्य गृहाश्रमम् । दोषदुःखजरामृत्युपापप्रार्य भयावहं ॥३१३।। शक्तिमन्तस्समासन्नविनेया विदितागमाः। गुप्त्यादिषड्विधं सम्यगनुगत्य यथोचितं ॥३१४।। प्रोक्तोपेक्षादिभेदेषु वीतरागादिकेषु च । पुलकादिप्रकारेषु व्यपेतागारकादिषु ।।३१५।। प्रमत्तादिगुण-स्थानविशेषेषु च सुस्थिताः । निश्चव्यवहारोक्तमुपाध्वं मोक्षमुत्तमम् ॥३१६।। तथा गृहाश्रमस्थाश्च सम्यग्दर्शनपूर्वकं । दानशीलोपवासार्हदादिपूजोपलक्षिताः ॥३१७ ।। आश्रितैकादशोपासकवताः सुशुमाशयाः। संप्राप्तपरमस्थानसप्तकाः संतु धीधनाः ।।३१८।। इति सत्ततत्त्वसंदर्भगर्भवाग्विभवात्प्रभों। ससभोभरताधीशः सर्वमेवममन्यत ।।३१९।। त्रिज्ञाननेत्रसम्यक्त्वशुद्धिभाग्देशसंयतः। स्त्रष्टारमभिवंद्यायात्कैलासान्नगरोत्तमम् ।।३२०।। जगत्त्रितयनाथोऽपि धर्मक्षेत्रेष्वनारतं । उप्त्वा सद्धर्मबीजानि न्यषिंचद्धर्मवृष्टिभिः ॥३२१|| सतां सत्फलसंप्राप्त्यै विहरन्स्वगणैः समं। चतुर्दशदिनो दोष, दुःख, बुढापा, मरण और पाप भरे हुये हैं और जो भयानक हैं ऐसे इस गृहस्थाश्रम को, छोड़ो ||३१३।। तुम लोग भक्तिमान हो, निकट भव्य हो और आगम वा शास्त्रों को अच्छी तरह जानते हो इसलिह अपनी अपनी योग्यतानुसार गुप्ति, समिति, धर्म अनुप्रेक्षा, परिषहजय और चारित्र इन छहों को अच्छी तरह पालन करो ।।३१४।। उपेक्षा संयम और वीतराग संयम को पालन करनेवाले जो मुनि हैं तथा पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ, स्नातक आदि जो मुनियों के भेद हैं, उनमें से किसी एक अवस्था को धारण करो ||३१५।। तथा प्रमत्त आदि जो उच्च गुणस्थान हैं उनमें अनुक्रम से निवास करो और इस तरह निश्चय तथा व्यवहार दो प्रकार के कहे हुये मोक्ष का सेवन करो अर्थात् दोनों तरह की मोक्ष प्राप्त करो ||३१६।। इसी तरह जो गृहस्थाश्रम में रहनेवाले हैं, वे दान, शील, उपवास, और अरहंतादि परमेष्ठियों की पूजा करें ।।३१७।। शुभ परिणामों से श्रावकों की कही हुई ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करें और वे ही बुद्धिमान सातों परमस्थानों को प्राप्त हों ।।३१८।। इस तरह भरतेश्वर ने तत्त्वों की रचना से भरी हुई भगवान की बचन रूपी विभूति सुनी और उसे सुनकर सब सभा के साथ-साथ ज्योंका त्यों माना अर्थात् उनपर पूर्ण श्रद्धान् किया ।।३१९।। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान इन तीनों ज्ञानरूपी नेत्रों को तथा सम्यग्दर्शन की विशुद्धि को धारण करनेवाला और देशसंयमी महाराज भरत आदि ब्रह्मा श्री ऋषभदेव की वंदना कर कैलासपर्वत से अपने उत्तम अयोध्या नगर को आया ।।३२०।। इधर तीनों लोकों के स्वामी भगवान् ऋषभदेव ने निरन्तर ही धर्मक्षेत्र में सद्धर्म Adipuran Vol. V Ch. 31-A, Pg. 1946-1952 Adipuran -3632
SR No.009853
Book TitleAshtapad Maha Tirth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size178 MB
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