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________________ _Shri Ashtapad Maha Tirth अंगूठे अमृत वसे, लब्धि तणा भंडार। श्री गुरु गौतम समरिये, मनवांछित फल दातार।। कहते हैं कि ५०१ तापस गौतम के गुणों से प्रभावित होकर पारणा करते हुए शुक्ल ध्यानारूढ़ हो केवलज्ञान को प्राप्त हुए। ५०१ भगवान् महावीर की गुरुमुखी से प्रशंसा सुन दूर से ही समवसरण देख कर रास्ते में ही केवलज्ञानी हुए। और शेष ५०१ प्रभु के समवसरण की शोभा एवं प्रभु की मुखमुद्रा देख कर केवलज्ञानी ही गये। गौतम इस बात से अनभिज्ञ थे। समवसरण में प्रवेश के बाद भगवान् को वन्दना-प्रदक्षिणा कर सभी शिष्य केवलीओं की पर्षदा की ओर जा रहे थे । तब गौतम स्वामी ने कहा की वहाँ बैठकर केवलियों की आशातना मत करें। प्रभु ने गौतम को रोकते हुए कहा कि, ये सब केवली ही हैं। तुम उन्हें रोक कर आशातना मत करो। प्रभुमुख से जवाब सुन कर गौतम अवाक् देखते रह गये। मन ही मन अपने कैवल्य के लिये खिन्नता का अनुभव करने लगे। अहो ! मुझे केवलज्ञान की प्राप्ति कब होगी ! चिन्तातुर गौतम को देखकर प्रभु बोले- हे गौतम ! चिरकाल के परिचय के कारण तुम्हारा मेरे प्रति उर्णाकर (धाज़ के छिलके समान) जैसा स्नेह है। इस लिये तुम्हें केवलज्ञान नहीं होता है। देवगुरु-धर्म के प्रति प्रशस्त राग होने पर भी वह यथाख्यात चारित्र का प्रतिबन्धक है। जैसे सूर्य के अभाव में दिन नहीं होता, वैसे यथाख्यात चारित्र के बिना केवलज्ञान नहीं होता। अतः स्पष्ट है कि जब मेरे प्रति तुम्हारा उत्कट स्नेह-राग समाप्त होगा तब तुम्हें अवश्यमेव केवलज्ञान की प्राप्ति होगी। पुनः भगवान् ने कहा- गौतम ! खेद मत करो इस भव में ही मनुष्यदेह छूट जाने पर हम दोनों (अर्थात् तुम और मैं) समान एकार्थी होंगे- सिद्धक्षेत्रवासी बनेंगे। प्रभुमुख से ऐसे वचनों को सुनकर गौतम का विषाद समाप्त हुआ। ईसा से ५१७ वर्ष पूर्व भगवान् महावीर स्वामि का निर्वाण हुआ। निर्वाण के समय प्रभु ने गौतम को देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोधित करने के बहाने अपने से दूर भेजा। वही दूरी गौतमस्वामि को कैवल्यता देने वाली साबित हुई। प्रभु के निर्वाण से प्रशस्त राग का विसर्जन होते ही कार्तिक सुदि १की प्रभात में केवली हए। गुरु गौतमस्वामि ३० वर्ष के संयम पर्याय के बाद केवली हए। केवली होकर १२ वर्ष तक विचरण करते हुए महावीर प्रभु के उपदेशों को जन-जन तक पहुँचाया। भगवान् महावीर के १४००० साधु, ३६००० साध्वियों, १५९०० श्रावक एवं ३१८०० श्राविका रूप चतुर्विध संघ के तथा अन्य गणधरों के शिष्यों के वे एक मात्र गणाधिपति रहे। ९२ वर्ष की उम्र में अपने देह की परिपक्व अवस्था देख कर देहविलय हेतु राजगृह के वैभारगिरि पर आये और एक मास का पादपोपगमन अनशन स्वीकार कर कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा के दिन निर्वाण को प्राप्त किया। सिद्धबुद्ध मुक्त हुए। जैन परम्परा में गुरु गौतम के नाम से अनेक तप प्रचलित हैं- १ वीर गणधर तप, २ गौतम कमल तप, ३ निर्वाण दीपक तप। इन तपों की आराधना कर भव्यात्माएँ मोक्षसुख की कामना करते हैं। गौतमस्वामी का शरीर मोटा-ताज़ा था। यह बात ग्रन्थकार ने ऐसी लिखी है टीकाकार ने, मूलग्रन्थ में नहीं टीकाकार ने लिखा है। पीछे कईयों ने ये टीकायें बनाईं। टीकायें यानि विशेष अर्थ। कईयों ने रचनाएँ की हैं लेकिन लगभग विवाद चालू है। फिर सूर्य की किरणों का अवलंबन ले कर के ऊपर पधारे, पर वास्तव में चेतना सूर्य की। यह किरणों को पकड़ना और चढ़ना-तो यह कोई हाथ में थोड़े ही आती हैं। पर यह चैतन्य किरणों-जिसके अवलंबन से आप ऊपर पधारे। जिनको नाभिमण्डल में ध्यान, धारणा और समाधि स्थिति सिद्ध हो सकती है, नाभिकमल की किरणों का उपयोग स्थिर करके-तो उसके साथ जब वह लब्धि प्रगट हो जाती है, एक साथमें ही उपयोग इधर भी रहे, सारे शरीर का सेंटर है नाभि-मण्डल और आकाश में भी रहे तो यह शरीर आकाश में उडना हो सकता है। जिनको उडना हो वह उड़े, यह है प्रयोग। उपयोग इधर और उधर आकाश में। दोनों में एक समानता, उसमें क्षति नहीं हो, धारा अखण्ड रहे जब तक, तब तक उड सकता है। जहाँ जाना हो जा सकता है। यह मनुष्यों को उडने की कला है। ये सारी लब्धियाँ आप में थीं इस लिये आप उधर गये। उस वक्त १५०३ तापस अष्टापद पर्वत के गौना -36319 - Mahamani Chintamani
SR No.009853
Book TitleAshtapad Maha Tirth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size178 MB
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