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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth. साथ भी उनका उल्लेख किया गया है ।" धम्मपद में ऋषभ को सर्वश्रेष्ठ वीर अभिहित किया है । ६ न्यायबिन्दु नामक ग्रन्थ में धर्मकीर्ति ने सर्वज्ञ के दृष्टान्त में भगवान् ऋषभदेव और भगवान् महावीर का नामोल्लेख देते हुए कहा है- 'जो सर्वज्ञ अथवा आस हैं, वे ज्योतिर्ज्ञानादिक के उपदेष्टा होते हैं, जैसेऋषभ, वर्धमान अदि । " आर्यदेव विचरित षट्शास्त्र में भी ऋषभदेव का उल्लेख किया गया है। वहाँ कपिल, कणाद आदि ऋषियों के साथ ऋषभदेव की मान्यता का वर्णन है। उन्होंने लिखा है कपिल, ऋषभ और कणादादि ऋषि 'भगवत्' कहे जाते हैं। ऋषभदेव के शिष्य निर्ग्रन्थ धर्म शास्त्रों का पठन करते हैं। ऋषभ कहते हैं 'तप का आचरण करो, केश-लुञ्चनादि क्रियाएँ करो, यही पुन्यमय हैं।' उनके साथ कुछ ऐसे अध्यापक थे जो व्रत, उपवास व प्रायश्चित्त आदि करते, अग्नि तपते, सदैव स्थिर रहते, मौन-वृत्ति धारण करते थे गिरिशिखर से पथन करते अथवा ऐसी क्रियाओं का समाचरण करते थे जो उन्हें गौ- सदृश शुक्ल बनाती थीं। उन क्रियाओं को वे पुण्यशाली समझते थे, और वे समझते थे, कि इस प्रकार हम अति शुक्ल-धर्म का आचरण करते हैं। त्रिशास्त्र-संप्रदाय के संस्थापक श्री चि-त्संग ने उपर्युक्त कथन का विश्लेषण करते हुए कहा है'ऋषभ तपस्वी ऋषि हैं, उनका सदुपदेश है, कि हमारे देह को सुख दुःख का अनुभव होता है। दुःख, पूर्व - संचित कर्म - फल होने से इस जन्म में तप- समाधि द्वारा नष्ट किया जा सकता है, दुःख का नाश होने से सुख तत्क्षण प्रकट हो जाता है। ऋषभदेव का धर्म ग्रन्थ 'निर्ग्रन्थ सूत्र' के नाम से विश्रुत है और उसमें सहस्रों कारिकाएँ हैं।' इन्होंने स्वरचित उपाय हृदय शास्त्र में भगवान् ऋषभदेव के सिद्धान्तों का भी वर्णन किया है। उन्होंने बताया है, कि ‘ऋषभदेव के मूल सिद्धान्त में पञ्चविध ज्ञान, छह आवरण और चार कषाय हैं । पाँच प्रकार का ज्ञान- श्रुत, मति, अवधि, मनः पर्यव और केवल है। छह आवरण हैं- दर्शनावरणी, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, गोत्र ओर नाम। इनकी विपक्षी शक्तियाँ छह ऐश्वर्य हैं। चार कषाय- क्रोध, मान, माया और लोभ हैं। इस प्रकार ये ऋषभदेव के मूलभूत सिद्धान्त हैं, इसी कारण वे 'भगवत्' कहे जाते हैं। श्री चित्संग ने यद्यपि जैनदर्शन सम्मत सिद्धान्तों का ही वर्णन प्रस्तुत किया है तथापि कुछ त्रुटियाँ क्रमापेक्षा और संख्यापेक्षा से हैं। उन्होंने षट् - शास्त्र में उल्लिखित उलूक, कपिल, आदि ऋषियों के बारे में अपना मन्तव्य प्रस्तुत करते हुए कहा है, कि “ इन सब ऋषियों के मत ऋषभदेव के धर्म की ही शाखाएँ हैं। ये सब ऋषि ऋषभदेव के समान ही उपवासादि करते थे, परन्तु इनमें कुछ ऋषि फल के तीन टुकड़े दिन-भर में ग्रहण करते थे, कुछ ऋषि वायु का आसेवन करते थे और तृण, घास आदि का आहार करते थे तथा मौन वृत्ति को धारण करते थे । १९९ इनके अतिरिक्त बौद्ध साहित्य में ऋषभदेव के सम्बन्ध में अन्यत्र वर्णन नहीं मिलता है। * इतिहास और पुरातत्त्व के आलोक में : भगवान् ऋषभदेव प्राग्ऐतिहासिक युग में हुए हैं। आधुनिक इतिहास उनके सम्बन्ध में मौन है। ऐतिहासिक ५ ७ ८ कपिल मुनिनाम ऋषिवरो, निर्ग्रन्थ तीर्थङ्कर... - वही ३९२ उसभं पवरं वीरं - धम्मपद ४२२ यः सर्वज्ञ आसो वा स ज्योतिर्ज्ञानादिकमुपदिष्टवान् तद्यथा ऋषभवर्धमानादिरिति । तैशोत्रिपिटक ३३ | १६८ 9 A Commentary on the Sata Sastra, 1, 2. Taishotr. Vol. 42, p. 244. 10 These teachers are offshoots of the sect of Rishabha. 11 Vol. 42, p. 427. Rushabhdev: Ek Parishilan 8526824
SR No.009853
Book TitleAshtapad Maha Tirth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size178 MB
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