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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth इस प्रकार सारे नवमकाण्ड के चतुर्थ सूक्त में भगवान् ऋषभ की परमेश्वर के रूप में स्तुति है। ३. ऋषभदेव और उनके तीन रूप ऋग्वेद के निम्नांकित दो मंत्रों में भगवान् ऋषभदेव का जीवन-वृत्त उसी प्रकार उल्लिखित है, जैसा कि जैन-परम्परा विधान करती है। उन मंत्रों में कहा है कि-'अग्नि प्रजापति प्रथम देवलोक में प्रकट हुए, द्वितीय बार हमारे मध्य जन्म से ही ज्ञान-सम्पन्न होकर प्रकट हुए, तृतीय रूप, इनका वह स्वाधीन एवं आत्मवान् रूप है, जब इन्होंने भव-समुद्र में रहते हुए निर्मल वृत्ति से समस्त कर्मेन्धनों को जला दिया।१९ तथा 'हे अग्रनेता ! हम तेरे इन तीन रूपों को जानते हैं, इनके अतिरिक्त तेरे पूर्व में धारण किये हुए रूपों को भी हम जानते हैं, तथा तेरा जो निगुढ परमधाम है, वह भी हमें ज्ञात है, और जिससे तू हमें प्राप्त होता है उस उच्च मार्ग से भी हम अनभिज्ञ नहीं है।'२० ४. ऋषभदेव और रुद्र केशी को समस्त ज्ञातव्यं विषय के ज्ञाता, सबके सखा, सभी के प्रियकारी और सर्वोत्कृष्ट आनन्दकारी माना है। ऋग्वेद के दशम मण्डल के सूत्र में प्रकाशमय, सूर्यमण्डल तथा ज्ञानमयी जटाधारी को केशी कहा गया है,२१ केशी सूत्र की अन्तिम ऋचा में वर्णित केशी द्वारा रुद्र के साथ जल पीने की घटना का वर्णन है। केशी, वातरशना मुनियों के अधिनायक थे। रुद्र ने उनके साथ जलपान किया, अतः उनके रुद्र स्वभाव में शीतलता, दया व जीवरक्षण की प्रवृत्तियाँ सहज ही उद्भूत हो गईं। अतः वैवस्वत मनु ने रुद्र को तीक्ष्ण शस्त्र को धारण करने वाले उग्र स्वभावी कहा है, साथ ही पवित्र शीतल स्वभावी और व्याधियों के उपशामक भेषज भी कहा है। एक पात्र में जलपान करने से उनकी वृत्ति में शीतलता आ गई अतः उन्हें जल के रूप में शीतलता बरसाने वाला 'वृष' अथवा 'वृषभ' कहा गया। वेदों में अनेक स्थलों पर वृषभ का अर्थ 'वर्षा करने वाला' इस रूप में ग्रहण किया है। रुद्र की इस द्विरूपता का वर्णन पुराणों में मिलता है। कल्प की आदि में ब्रह्मा के पुत्र कुमार नीललोहित सात बार रोये थे, रोने के कारण उनका रुद्र नाम हुआ, साथ ही सात बार रोने से उनके सात नाम पड़े -रुद्र, शर्व, पशुपति, उग्र, अशनि, भव, महादेव और ईशानकुमार। ये नौ नाम शतपथ ब्राह्मण में अग्नि के विशेषण रूप में उल्लिखित हैं ।२२ और भगवान् वृषभदेव को ही अग्नि के रूप में पूजा जाता है, यह पहले स्पष्ट किया जा चुका है, अतः रुद्र, महादेव, पशुपति आदि नाम ऋषभदेव के ही नामान्तर हैं। इसके अतिरिक्त ऋग्वेद में रुद्र की जो स्तुति की गई है, वहाँ रुद्र के स्थान पर 'वृषभ'२३ का उल्लेख पाँच बार आया है, वहाँ रुद्र को 'आर्हत् शब्द से सम्बोधित किया है। यह आर्हत् उपाधि भगवान् ऋषभदेव की ही हो सकती है, क्योंकि उनका चलाया हुआ धर्म 'आर्हत धर्म' के नाम से विश्वविश्रुत है। 'शतरुद्रिय स्तोत्र' में रुद्र की स्तुति के छियासठ मंत्र हैं जहाँ रुद्र को 'शिव, शिवतर तथा शंकर' १९ दिवस्परि प्रथमं जज्ञे अग्निरूप द्वितीय परि जातवेदाः। तृतीयमप्सु नृमणा अजस्रमिंधान एवं जाते स्वाधीः ।। -ऋग्वेद १०.४५१ २० विद्या ते अग्रे त्रेधा वयाणि विद्या ते धाम विभूता पुरुन्ना। विद्या ते नाम परम गुहा यद्विद्या तमुत्सं यत आजगंथ ।। -ऋग्वेद १०४५२ २१ केश्याग्निं विषं केशी विभति रोदसी। केशी विश्व स्वदेशे केशीदं ज्योतिरुच्यते।। -ऋग्वदे १०।१२६ २२ तान्येतानि अष्टौ रुद्रः शर्वः पशुपति उग्रः अशनिः भवः। महान देवः ईषानः अग्निरूपाणि कुमारो नवम् ।। __ - शतपथ ब्राह्मण ६/२/३१८ २३ एव वभ्रो वृषभ चेकितान यथा देव न हृणीयं न हंसि। -ऋग्वेद २।३३।१५ 12516 Rushabhdev : Ek Parishilan
SR No.009853
Book TitleAshtapad Maha Tirth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size178 MB
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