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________________ Shri Ashtapad Maha Tirth. गया | २४ दिगम्बर परम्परा में स्वप्न सन्दर्भ के साथ ही यह भी उल्लेख है कि इन्द्र ने इनका नाम वृषभदेव रखा था । २५ ऐसा उल्लेख है कि ऋषभ का कोई वंश नहीं था क्योंकि जिस समय उनका जन्म हुआ उस समय मानव समाज किसी कुल, जाति या वंश में विभक्त नहीं था । २६ जब ये लगभग एक वर्ष के थे और एक दिन पिता की गोद में बैठे थे उसी समय हाथ में इक्षुदण्ड लिए इन्द्र वहाँ उपस्थित हुए। उसे प्राप्त करने के लिये ऋषभ ने दाहिना हाथ आगे बढ़ाया । इन्द्र ने इक्षु-भक्षण की ऋषभ की रुचि जानकर उनके वंश का नाम इक्ष्वाकुवंश रखा। ज्ञातव्य है कि इक्ष्वाकुवंश में ही अधिकांश तीर्थंकरों का जन्म हुआ था। २७ यौवनावस्था में यशस्वती तथा सुनन्दा नामक दो रूपवती व गुणवती राजकन्याओं के साथ ऋषभ का विवाह हुआ । २८ वृषभ के पूर्व तत्कालीन समाज में कोई वैवाहिक प्रथा प्रचलित नहीं थी । २९ सर्वप्रथम ऋषभ ने ही भावी मानव समाज के हितार्थ विवाह परम्परा का सूत्रपात किया और मानव मन में बढती हुई वासना को विवाह सम्बन्ध के माध्यम से सीमित और नियोजित कर दिया । २० ऋषभदेव की यशस्वती नामक महादेवी से प्रथम चक्रवर्ती भरत सहित अन्य ९९ पुत्र एवं ब्राह्मी नाम की पुत्री तथा दूसरी रानी सुनन्दा से बाहुबली नामक पुत्र तथा सुन्दरी नाम की पुत्री उत्पन्न हुयीं । ३१ जैन मान्यता के अनुसार ऋषभ ने ही सर्वप्रथम कर्मयुग का आरम्भ किया था इनकी राज्य व्यवस्था से पूर्व मानव कल्पवृक्ष के फल व अपने आप उत्पन्न कन्दमूल आदि के भोजन पर ही निर्भर था। ऋषभदेव ने सर्वप्रथम असि मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य तथा शिल्प इन छह कार्यों के द्वारा प्रजा को आजीविका का उपदेश दिया । ३२ शस्त्र धारण कर सेवा करना असिकर्म, लिखकर आजीविका करना मसिकर्म, जमीन को जोतना - बोना कृषिकर्म, पढ़ा कर अथवा नृत्य-गायन द्वारा आजीविका करना विद्याकर्म, व्यापार करना वाणिज्यकर्म तथा हस्त की कुशलता से जीविकोपार्जन शिल्पकर्म कहलता है।" शिल्पकर्म द्वारा आजीविका का सन्दर्भ जैन परम्परा में प्रारम्भ से ही कला के महत्व को स्पष्ट करता है । कर्मयुग का आरम्भ करने के कारण ऋषभ कृतयुग' तथा 'प्रजापति' कहलाये हैं। कर्मभूमि के समान ऋषभ वर्णव्यवस्था के भी जनक थे । ३५ ३४ ऋषभ के संसार के प्रति विरक्ति एवं दीक्षा ग्रहण करने के सम्बन्धों में उल्लेख मिलता है कि एक दिन जब वे सभामण्डप में सिंहासन पर बिराजमान थे उसी समय इन्द्र ने उनके मन को राज्य व सांसारिक भोगों से विरत करने के उद्देश्य से नीलांजना नाम की एक क्षीण आयु नृत्यांगना को ऋषभ के समक्ष उपस्थित किया जो नृत्य करते समय ही मृत्यु को प्राप्त हो गयी । २६ इस घटना से ऋषभ को आवश्यकचूर्णि (जिनदासकृत), पृ. १५१ । २५ आदिपुराण १४.१६०-१६१; हरिवंशपुराण ८.२०४-२११। 22222 & २४ २६ २७ २८ हस्तीमल, पू. नि. पृ. १५। आवश्यक नियुक्ति गाथा १८६ : नियुक्ति दीपिकागाथा १८१ । आदिपुराण १५.५०-७०। हस्तीमल, पू. लि., पृ. १६ । आवश्यक नियुक्तिगाथा, १९९, पृ. १९३। आदिपुराण १६. ४-७ आदिपुराण १६-१३१-१४६, १७९-१८० २९ ३० ३१ ३२ हरिवंशपुराण ९ २५-३९/ ३३ ३४ ३५ ३६ Jain Mahapuran आदिपुराण १६. १८१-१८२ । आदिपुराण १६.१८९-१९०/ आदिपुराण १६. १८३ हरिवंशपुराण ९.२५-३९ । आदिपुराण १७ १-९ -85 222 a -
SR No.009853
Book TitleAshtapad Maha Tirth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size178 MB
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