SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 237
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ से विभूषित होता है । १९ । अस्त्युत्तरेण कैलासाच्छिवः सेर्वोषधोगिरिः । गोरन्तु पर्वतश्रेष्ठं हरितालमयं प्रति ॥ २४ ॥ हिरण्यभृंगः सुमहान् दिव्यौषधिमयो गिरिः । तस्यपावे महद्दिव्यं सरः काञ्चनवालुकम् ॥ २५ ॥ रम्यं बिन्दुसरो नाम यत्र राजा भगीरथः । गंगार्थे स तु राजर्षरुवाम बहुलाः समा । २६ । Shri Ashtapad Maha Tirth उस सर से परम पुण्यमयी और अत्यन्त शुभ शैलोदका नाम वाली नदी समुत्पन्न होकर बहती है । वह उन दोनों के मध्य में चक्षुषी पश्चिम सागर में प्रविष्ट होती है । २३ । कैलाश के उत्तर भाग में सवेषिध शिवगिरि है। यह श्रेष्ठ पर्वत गौर हरिताल मय ही होता है। हिरण्य भृंग बहुत ही महान् और दिव्यौषधियों से परिपूर्ण गिरि है। उसके चरणों के भाग में एक महान् दिव्य सर है जिसकी बालुका काञ्चनमयी है। वहाँ पर एक परम रम्य बिन्दुसर नाम वाला सरोवर है जहाँ पर गंगा के लाने के लिये तपश्चर्या करता हुआ राजर्षि राजा भगीरथ बहुत से वर्षों तक रहा था। २४- २६ । मत्स्य पुराण के इस वर्णन में ८वें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ जिनके नाम पर कैलाश के पूर्व में एक पर्वत है। दूसरा यक्ष मणिभद्र का वर्णन जिनकी मान्यता का प्रभाव आज भी जैन मन्दिरों में परिलक्षित होता है । यक्ष मान्यता जैनियों में अनादि काल से प्रचलित है । ऋषभदेव स्वामी के निर्वाण स्थल पर मणिभद्र यक्ष का वास यक्षों की परम्परा को प्राचीन जैन परम्परा से सीधा जोड़ता है । जैन साहित्य में मणिभद्र यक्ष के प्रभाव सम्बन्धी अनेक वर्णन मिलते हैं। महुडी (गुजरात) में घण्टाकर्ण की मान्यता जैन समाज में बहुत है और यही घण्टाकर्ण बद्रीनाथ पर्वत के क्षेत्रपाल हैं। जिस तरह शिखरजी पर्वत के भूमिया जी, बद्रीनाथ पर्वत के घण्टाकर्ण उसी तरह कैलाश के क्षेत्रपाल मणिभद्र यक्ष है। तिब्बती मान्यता में यह कहा जाता है कि बुद्ध भगवान् ने इस आशंका से कि कहीं यक्षगण इसके शिखर को उखाड़कर ऊपर न ले जाएं, इसे चारों ओर से अपने पैरों से दबाकर रखा है (कैलाश के चारों ओर बुद्ध भगवान् के चार पद चिन्ह हैं ऐसा कहा जाता है) तथा नाग लोग कहीं इसे पाताल में न ले जाएँ, इस डर से इसके चारों ओर सांकलें बनाई गई हैं। कैलाश का अधिष्ठात देवता देमछोक है, जो पावों के नाम से भी पुकारा जाता है । वह व्याध चर्म का परिधान और नर-मुण्डों की माला धारण करता है। उसके एक हाथ में डमरू और दुसरे में त्रिशूल है। इसके चारों ओर ऐसे ही आभूषणों से आभूषित प्रत्येक पंक्ति में पांच सौ की संख्या से नौ सौ नब्बे पंक्तियों में अन्यान्य देवगण बैठे हुए हैं। वेमछोक के पार्श्व में खड़ो या एकाजती नामक देवी विराजमान हैं। इस कैलाश शिखर के दक्षिण भाग में वानरराज हनुमानजी आसीन हैं। इसके अतिरिक्त कैलाश और मानसरोवर में शेष अन्य देवगणों का निवास है । यह कथा कडरी - करछर नामक तिब्बती कैलाशपुराण में विस्तृत रूप से वर्णित है। उपर्युक्त देवताओं के दर्शन किसी-किसी पुण्यात्मा अथवा उच्च कोटि के लामा को ही हो सकते हैं। कैलाश के शिखर पर मृदंग, घंटा, ताल, शंख आदि और अन्य कतिपय वाद्यों का स्वर सुनायी पड़ता है। वाल्मीकि० किष्किन्धा ४३ में सुग्रीव ने शतबल वानर की सेना को उत्तरदिशा की ओर भेजते हुए उस दिशा के स्थानों में कैलाश का भी उल्लेख किया है- ततु शीघ्रमतिक्रम्ब कान्तारे रोमहर्षणम- कैलामं पांडुरं प्राप्य हष्टा युयं भविष्यथ अर्थात् उस भयानक बन को पार करने के पश्चात् श्वेत (हिममंडित) कैलाश पर्वत को देखकर तुम प्रसन्न हो जाओगे । 197 Adinath Rishabhdev and Ashtapad
SR No.009853
Book TitleAshtapad Maha Tirth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajnikant Shah, Kumarpal Desai
PublisherUSA Jain Center America NY
Publication Year2011
Total Pages528
LanguageHindi, Sanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari
File Size178 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy